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इम्यूनोथेरेपी एक तरह का उपचार है जो शरीर के प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को प्रेरित करता है, उसे बढ़ाता या मजबूत बनाता है। इम्यूनोथेरेपी का प्रयोग कुछ विशेष प्रकार के कैंसर और इन्फ्लेमेटरी रोगों जैसे रियूमेटायड अर्थराइटिस, क्रोंस डिजीज और मल्टीपल स्क्लेरोसिस रोगों का इलाज करने के लिये किया जाता है। इसे बॉयोलॉजिकल थेरेपी, बॉयोथेरेपी या बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडिफायर (बीआरएम) थेरेपी भी कहा जाता है।
शरीर का इम्यून सिस्टम जीवाणु और अन्य बाह्य सामग्री की पहचान करता है और उन्हें नष्ट करता है। हमारी प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली जैसा की आयुर्वेद में बताया गया है कि कैंसर की कोशिकाओं को बाहरी या असामान्य रूप में पहचान सकती हैं। सामान्य कोशिकाओं की अपेक्षा कैंसर कोशिकाओं की बाहरी कोशिकीय सतह पर एक विशिष्ट प्रोटीन होता है जिसे एंटीजन कहा जाता है। एंटीजन वे प्रोटीन हैं जो इम्यून सिस्टम द्वारा निर्मित किए जाते हैं। वे कैंसर कोशिकाओं के एंटीजन से जुड़ जाते हैं और उन्हें असामान्य कोशिकाओं के रूप में चिन्हित करते हैं। यदि इम्यून सिस्टम हमेशा सही से कार्य करे तो केमिकल सिग्नल चिन्हित कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए इम्यून सिस्टम में विशेष कोशिकाओं को शामिल करते हैं। हालांकि इम्यून सिस्टम स्वयं हमेशा सही ढंग से कार्य नहीं करता है।इम्यूनोथेरेपी प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को कैंसर से लड़ने के लिए प्रेरित करने में सहायक होता है। इम्यूनोथेरेपी में इस्तेमाल किये जाने वाले रस रसायन व आयुर्वेदिक दवाये जिनको प्राय: बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कहा जाता है क्योंकि वे शरीर के सामान्य इम्यून सिस्टम को कैंसर के खतरे से निपटने लायक बनाते हैं। कुछ बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर वे रस रसायन व आयुर्वेदिक दवाये होते हैं, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से मौजूद होते हैं लेकिन किसी व्यक्ति के इम्यून सिस्टम को उन्नत करने में सहायता के लिये बड़ी मात्रा में ये हमारे प्रकृति व हमारे आस पास के वातावरण में ही उपलब्ध होते हैं। बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कैंसर से लड़ने में कई प्रकार से सहायक हो सकते हैं। वे किसी ट्यूमर को नष्ट करने के लिये अधिक इम्यू्न सिस्टम कोशिकाओं को शामिल कर सकते हैं। या वे कैंसर कोशिकाओं को इम्यून सिस्टम के आक्रमण के प्रति असुरक्षित कर देते हैं।
कुछ बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कैंसर कोशिकाओं के विकास की दिशा बदलने में सक्षम होते हैं उनको सामान्य कोशिकाओं के समान व्यवहार के लिए विवश कर देते हैं।
इम्यूनोथेरेपी प्रतिरोधी तंत्र को कैंसर से लड़ने के लिए प्रेरित करने में सहायक होता है। इम्यूनोथेरेपी में इस्तेमाल किये जाने वाले रस रसायन व आयुर्वेदिक दवाये जिनको प्राय: बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कहा जाता है क्योंकि वे शरीर के सामान्य इम्यून सिस्टम को कैंसर के खतरे से निपटने लायक बनाते हैं। कुछ बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर वे रस रसायन व आयुर्वेदिक दवाये होते हैं, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से मौजूद होते हैं लेकिन किसी व्यक्ति के इम्यून सिस्टम को उन्नत करने में सहायता के लिये बड़ी मात्रा में ये प्रकृति द्वारा बनाए जाते हैं। बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कैंसर से लड़ने में कई प्रकार से सहायक हो सकते हैं। वे किसी ट्यूमर को नष्ट करने के लिये अधिक इम्यू्न सिस्टम कोशिकाओं को शामिल कर सकते हैं। या वे कैंसर कोशिकाओं को इम्यून सिस्टम के आक्रमण के प्रति असुरक्षित कर देती है।
पुलिस राजक-अराजक की पहचान में क्यों चूकती है और इस चूक का इलाज क्या है ?
जब कोई यह कहता है कि डॉक्टर साहब , मेरी इम्यूनिटी बढ़ा दीजिए — तो वह नहीं समझ रहा होता कि प्रतिरक्षा-तन्त्र शरीर का वह जटिलतम तन्त्र है , जिसके बारे में ज़्यादातर डॉक्टरों-तक को कोई इल्म नहीं।
जेम्स पी.एलिसन और तासुको होंजो का शोध जिन दो अणुओं पर है , वे कैंसर-कोशिकाओं के वे प्रमाण-पत्र हैं , जिनसे वे हमारे शरीर की रक्षक लिम्फोसाइटों के जूझा करते हैं और उन्हें निष्क्रिय कर देते हैं।
आप इसे ऐसे समझिए। कैंसर-कोशिकाएँ मानव-शरीर की ही वे कोशिकाएँ हैं , जिनका अपनी वृद्धि पर कोई नियन्त्रण नहीं है। ये सामान्य कोशिकाओं से आहार और स्थान के लिए प्रतियोगिता करती और उन्हें पिछाड़ देती हैं। अन्ततः यही वह कारण होता है , जिसके कारण मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि हमारा प्रतिरक्षा-तन्त्र इन कोशिकाओं से लड़ता नहीं या उन्हें नष्ट करने की कोशिश नहीं करता। लेकिन अगर पुलिसवाले किसी अपराधी को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं , तो अपराधी भी शातिर है और वह अपनी पहचान छिपाने की फ़िराक में है। सो कई कैंसर कोशिकाएँ इसी तरह से शरीर के इन रक्षक लिम्फोसाइटों को चकमा दिया करती हैं।
कैंसर-कोशिकाओं की सतह पर अन्य सामान्य कोशिकाओं की ही तरह अपने कुछ एंटीजन नामक प्रोटीन उपस्थित होते हैं , जिन्हें वे टी लिम्फोसाइटों ( लिम्फोसाइटों का एक प्रकार ) को प्रस्तुत करती हैं। इन प्रोटीनों को कैंसर कोशिकाएँ एमएचसी 1 नामक अणु में बाँधती हैं और टी सेल रिसेप्टर से जोड़ देती हैं , जो टी लिम्फोसाइट की सतह पर मौजूद है। इस तरह से एक एमएचसी 1 + एंटीजन + टी सेल रिसेप्टर का जोड़ बन जाता है। शरीर की हर कोशिका को अपनी पहचान टी लिम्फोसाइटों को देनी ही है , यह एक क़िस्म का नियम मान लीजिए।
अब इस सम्पर्क के बाद कैंसर को कोशिकाओं पर कुछ अन्य अणु भी उग आते हैं। ये अणु सहप्रेरक ( को-स्टिम्युलेटरी ) हो सकते हैं और सहशमनक ( इन्हिबिटरी ) भी। सहप्रेरक अणु सीडी 80 और सीडी 86 हैं। कैंसर-कोशिका पर मौजूद इस अणु से जब लिम्फोसाइट जुड़ेगी , तो वह आक्रमण के लिए उत्तेजित होकर तैयार हो जाएगी। सहशमनक अणु सीटीएलए 4 और पीडी 1 हैं। इन अणुओं से लेकिन जब लिम्फोसाइट जुड़ती हैं , तो एक अलग घटना होती है। अब ये लिम्फोसाइट जो पहले कैंसर-कोशिकाओं को सम्भवतः मारने की तैयारी में थीं , निष्क्रिय हो जाती हैं। यानी एमएचसी 1 + एंटीजन _ टी सेल रिसेप्टर के बाद हुए इस दूसरे सम्पर्क ने रक्षक लिम्फोसाइट के इरादे ऐसे बदले कि उसने दुश्मन को मारने से मना कर दिया। अब शरीर क्या करे बेचारा ! कैंसर ने तो शरीर के सैनिकों को चक़मा दे दिया !
1 . एमएचसी 1 + एंटीजन ( कैंसर-कोशिका पर ) जुड़ा लिम्फोसाइट के टी सेल रिसेप्टर से ( पहला चरण )।
2 . फिर अगर सीडी 80 या सीडी 86 ( कैंसर-कोशिका पर ) जुड़ा लिम्फोसाइट से तो हुआ लिम्फोसाइट का उत्तेजन और वह हुआ आक्रमण के लिए तैयार और उनसे किया कैंसर-कोशिका को नष्ट। ( दूसरी सम्भावना , जो कैंसर-कोशिका को मारने की सफलता देती है। )
3. लेकिन अगर सीडी 80 और 86 की जगह लिम्फोसाइट जुड़ गया कैंसर-कोशिका की सीटीएलए 4 या पीडी 1 से तो वह निष्क्रिय हो गया। ( दूसरी सम्भावना जो कैंसर-कोशिका को मारने की असफलता देती है। यानी कैंसर बच निकलता है।)
( ज़ाहिर है कैंसर की कोशिकाएँ स्मार्ट हैं। वे अपनी देह पर ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटीएलए 4 और पीडी 1 उगाएँगी , न कि सीडी 80/86 ! उन्हें पहचान कराकर अपनी , मरना थोड़े ही है लिम्फोसाइटों के हाथों ! )
अब यहाँ एलिसन और होंजो की जोड़ी आती है मैदान में। वे ऐसी कुछ दवाएँ बनाते हैं , जो कैंसर-कोशिकाओं पर उग आये सीटीएलए 4 और पीडी 1 का लिम्फोसाइटों से सम्पर्क ही न होने दें। उनसे पहले ही जुड़ जाएँ। नतीजन लिम्फोसाइट गुमराह नहीं होंगी और कैंसर-कोशिकाओं को सामान्य रूप से मार सकेंगी। इसी काम के द्वारा विज्ञान कई कैंसरों से लड़ने में कामयाब होता रहा है और इसी तकनीकी को इम्यूनोथेरेपी कहा गया है।
ऐसा नहीं है कि इम्यूनोथेरेपी नयी है। यह कई सालों से प्रचलन में है। इसके अन्तर्गत ढेर सारी दवाएँ आर्थुर्वेद में उपलब्ध हैं। जीवक आयुर्वेदा इसी तरह से रस रसायन वह आयुर्वेदिक दवाओं का प्रयोग करके कैंसर जैसी बीमारी से को खत्म करने व नष्ट करने में कई सारे रिसर्च कर अपने मरीजों को सेवाएं उपलब्ध करा रहा है
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आज कल के रोजमर्रा के जीवन में घुटनो का दर्द या आर्थराइटिस आम सा होता जा रहा है आइये आखिर क्यों ये रोग इतनी तेजी से बढ़ रही है ; क्यों सभी इसके शिकार होते जा रहे है ।
ऑर्थोराइटिस शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है जिसमे ऑर्थो का अर्थ हड्डी होती है इटिस का अर्थ शोथ होता है जो की वेदना का करण होता है , सामान्य भाषा में बोले तो जोड़ो में सूजन (joint inflammation ) इसका करण मूल है
यदि ये लक्षण दिख रहे है तो मानिये की हड्डियों की कमजोरी के रोग आने शुरू हो गए । हड्डी के विषय में आपको बता दू की हड्डी फाइबर और मैट्रिक्स से बना ठोस, सख्त और मजबूत संयोजी ऊतक है। इसका मैट्रिक्स प्रोटीन से बना होता है और इसमें कैल्शियम और मैगनीशियम की भी प्रचूरता होती है।
क्या आप जानते हैं कि हड्डियों की मजबूती उसमें मौजूद खनिजोंकी वजह से होती है। यानी की सामान्यत जो इसके निर्माण घटक है वो ही इसके पोषक है।
आयुर्वेद में इसके मुख्य करण वात को माना गया है। आयुर्वेद के स्पष्ट कहा गया है की वात की वृद्धि से रुक्ष, लघु खर चल विशद आदि गुणों की वृद्धि होती है जो समान्यः वृद्धावस्था में वृद्धि को प्राप्त कर जॉइंट में रहने वाली श्लेष्मा (fluid) को सुखा कर दुःख और वेदना की विकट स्थिति उत्पन्न कर देता है ।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति में घुटने का बदलना या लाक्षणिक चिकित्सा कर रोग के लक्षणों में आराम पहुचना ही एक मात्र विकल्प बताया गया है ।
दर्द के लिए तेल का प्रयोग तो भारत का बच्चा बच्चा जनता है , दूध घी जो हम भारतीयो की नित्य भोजन में प्रयुक्त होने वाली वस्तु होती थी पिछले 2 दशक में हम भारतीयो को दिग्भर्मित किया गया की घी आपको नुकशान करता है ये हृदय ,यकृत आदि को खराब कर देता है और हम सभी ने अपने भोजन से दूध घी आदि को निकाल दिया और फिर अर्थराइटिस जैसे रोगों को महामारी की तरह फैला दिया। हम सभी के आहारो से विविधता का ग़ायब हो जाने एवं हानिकारक रसायन के सेवन ही हम सभी लो बीमार कर रहा है,
आयुर्वेद का मूल सिद्धान्त निदान परिवर्जन – चूँकि हम आपको पहले ही बता चुके है की इस रोग में मूल में वात की वृद्धि है अतः वात को बढ़ाने वाला आहार विहार का त्याग करे। फिर बढ़े वात का शमन कर दिया जाये तो रोग में आराम आने शुरू हो जाती है। आयुर्वेद में चिकित्सा की दो विधा है जिसमे से शोधन चिकित्सा जिसे पंचकर्म के नाम से जाना जाता है जो रोग को शीघ्र ही शमन क्र देती है
शमन चिकित्सा एवं पंचकर्म के द्वारा जोड़ो की समस्या का स्थायी इलाज सम्भव है।
अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी निःशुल्क परामर्श के लिए हेल्थ का नम्बर 8824110055 पर मिस्ड कॉल करें। अधिक जानकारी के लिए विजिट करें : www.JivakAyurveda.com
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Welcome to Jivak Ayurveda, the best Ayurvedic hospital for kidney treatment in India. At Jivak Ayurveda, we are dedicated to providing exceptional care and holistic healing solutions for patients suffering from kidney disorders. With our specialized team of Ayurvedic doctors and state-of-the-art facilities, we offer comprehensive treatment options that aim to restore kidney health naturally.
Kidney function may be impaired by diseases or drugs that effect the Kidney parenchyma, by extra Kidney disorders such as acute circulatory failure or as a result of conditions in which there is obstruction to outflow of urine. The deterioration of kidney function that ensues may be acute or chronic and of varying degree of severity.
Acute Kidney failure is caused by diseases like acute glomerulonephritis, bilateral pyelonephritis, severely high blood pressure and systemic lupus erythamatosus while chronic Kidney failure may result from conditionslsuch as progressive glomerulonephritis, chronic pyelonephritis, polycystic disease of kidneys and tuberculosis of kidneys.
According to Ayurveda, kidneys are the roots of madovaha srotas (channel of fat tissue) and are made up of rakta and meda dhatus (blood and fat tissues). So diseases arising out of these dhatus (tissues) can affect kidneys and cause their failure. Madhumeha (diabetes) is well-known for it.
Nausea
Vomiting
Collection of fluid in lungs
Anaemia
Body swelling
Itching on skin
Ayurvedic View
According to Ayurveda this disease is caused by the blockage of minute body channels called srotas. The body channels involved in this case, known as mutravaha srotas, carry urine and are responsible for the flow of liquid into and out of the kidneys. If there are blockages in the incoming srotas the kidneys are denied fluids and shrinkage occurs. However, if the outgoing channels are blocked, swelling occurs. There are very effective Ayurvedic herbs, such as punanarva that can clean these channels and reduce swelling and rejuvenate the kidneys. Ayurvedic treatment aims at strengthening the kidneys, restoring its filtration capacity and general functioning of the kidneys. This line of treatment can eliminate the need for reliance upon dialysis.
1. Our hospital boasts a team of highly skilled and experienced Ayurvedic doctors who specialize in kidney treatment. They possess deep knowledge of Ayurvedic principles and employ a personalized approach to diagnose and treat kidney disorders effectively.
2. At Jivak Ayurveda, we follow a holistic treatment approach that addresses the root cause of kidney problems rather than merely alleviating symptoms. Our treatments focus on balancing the body’s energies, promoting detoxification, and enhancing overall well-being.
3. At the Best Ayurvedic Hospital for Kidney Treatment in India, We offer a wide range of traditional Ayurvedic therapies that have proven efficacy in managing kidney diseases. These therapies include Panchakarma detoxification, Abhyanga (Ayurvedic massage), Swedana (herbal steam therapy), and specific herbal formulations tailored to individual patient needs.
4. Each patient is unique, and so are their health conditions. We understand this and create personalized treatment plans that consider various factors such as the patient’s medical history, current symptoms, and lifestyle. This individualized approach ensures the best possible outcomes for our patients.
5. Jivak Ayurveda as the Best Ayurvedic Hospital for Kidney Treatment in India utilizes 100% natural medicines and herbal formulations for kidney treatment. These Ayurvedic remedies are carefully prepared using potent herbs and minerals, known for their rejuvenating and healing properties. They are safe, free from side effects, and help restore kidney function naturally.
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सोराइसिस (Psorisis) त्वचा का एक ऐसा रोग है जो पूरे शरीर की त्वचा पर तेजी से फैलता है। इसमें त्वचा में जलन होती है और सारी त्वचा लाल हो जाती है। त्वचा पर छोटे या बड़े आकार के धब्बे हो जाते हैं जो छोटे छोटे धब्बों से मिलकर बने होते हैं। इनमें शुरुआत मे प्रायः पस (PUS) होता है जो बाद में सूख जाता है। इन धब्बों/चकतों का रंग गुलाबी या चमकदार सफ़ेद होता है जो पुराना होने पर राख़ के रंग जैसा काला हो जाता है।
ये चकत्ते 2 मिलीमीटर से 1 सेंटीमीटर तक के होते हैं। सोराइसिस (Psorisis) प्रायः हाथ की हथेलियों और पैर की पगतलियों से शुरू होता है। सोराइसिस में त्वचा में जलन होती है। ऐसा लगता है कि जैसे कोई बिच्छू का डंक लगा हो। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे आटो इम्यून डीजीज (Auto Immune Disease) माना गया है। इस तरह के रोगों में शरीर का रक्षा तंत्र (श्वेत रक्त कणिकाएं) शरीर पर ही हमला कर देता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस रोग का कोई भी स्थायी इलाज नहीं है केवल स्टीरायड्स (Steroids) (ग्लूकोकोर्टिकायड) द्वारा इसके लक्षणों में आराम पहुंचाया जाता है। जब भी रोगी को परेशानी जैसे जलन, खुजली आदि बढ़ती तो रोगी को केनकोर्ट का इन्जैकशन लगाया जाता है। लेकिन आयुर्वेद में इसका ईलाज 100% सम्भव है आत्मविश्वास, धर्य और परहेज का पालन जरुरी है।
एक्जिमा (Eczema) भी त्वचा का जटिल रोग है। त्वचा में जलन, दर्द व लाली दिखाई देती है जो कुछ दिन बाद कालिमा में बादल जाती है। एक्जिमा की शुरुआत त्वचा के मोड़ों जैसे कुहनी, गर्दन का पिछला भाग पैर का ऊपरी भाग, हथेली के पिछले हिस्से और घुटनों के नीचे वाले हिस्सों से होती है। एक्जिमा में छोटी, छोटी लाल रंग की फुंसिया निकलती हैं और बाद में काली हो जाती हैं। एक्जिमा में भी केवल स्टीरायड(Steroids) वर्ग की दवाइयाँ दी जाती हैं। ये भी आटो इम्यून डीजीज(Auto Immune Disease) है।
आयुर्वेद में त्वचा के सभी रोगों को कुष्ठ नाम से कहा गया है। चरक संहिता मे लिखा है – स्पर्श इंद्रिय (त्वचा) को विकृत करने वाले रोग का नाम कुष्ठ है सोराइसिस को विसर्प कुष्ठ कहा गया है। सुश्रुत संहिता निदान में कहा गया है “त्वचा, रक्त, मांस को दूषित करके शीघ्र ही फैलता है इसमें बैचैनी, जलन, दर्द (जैसे काँटा चुभनाया मधुमक्खी के डंक की तरह दर्द) और त्वचा के स्पर्शज्ञान (Feeling) का कम होना आदि लक्षण पाए जाते हैं उसे विसर्प कुष्ठ कहते हैं”
आयुर्वेद में एक्जिमा को चर्मदल कहा गया है। चरक संहिता चिकित्सा स्थान, अध्याय 7 श्लोक 24 में लिखा है – जिस चर्म रोग में त्वचा में लाल रंग दिखाई दे, खुजली हो रही हो, फफोले निकले हों, वेदना (त्वचा के जिस हिस्से मे एक्जिमा है वहाँ पर दर्द) हो, ऊपर से त्वचा फटती हो और जिसमे स्पर्श (Feeling) सहन न होता हो अर्थात एक्जिमा के स्थान पर छूने से भी परेशानी हो उसे चर्मदल कहते हैं।आयुर्वेद की द्रृष्टि से ये दोनों रोग वात पित्त के बढ़ाने से होते हैं दोनों के लक्षण कुछ हद तक समान है इसलिए इन दोनों की आधुनिक तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा भी एक समान है।
(किसी भी चर्म रोग मे ये चीजें छोड़ दे) मांस, दूध, दही, लस्सी, तेल (सरसों के तेल को छोड़ कर), कुलथी की दाल, उरद(माह) की दाल, सेम, ईख के बने पदार्थ (चीनी, गुड खांड, मिश्री आदि), पिट्ठी से बनी वस्तुएं जैसे दहीबड़ा, कचौरी आदि, खटाई जैसे इमली, नींबू, अमचूर, कांजी आदि, विरोधी भोजन (जैसे दूध के साथ नमक, खटाई, जामुन आम आदि, घी के ऊपर ठंडा पानी, पानी में शहद आदि), अध्यशन (पहले खाए हुए भोजन के न पचने पर भी भोजन या कुछ भी ऐसे ही खा लेना), अजीर्ण (अपच) में भोजन, खाना विदाही अर्थात जलन करने वाले भोजन जैसे:- लाल/हरी मिर्च, राई, अदरक, रायता, शराब/सिरका आदि, अभिष्यन्दी जैसे:- दही, खीर, बर्फी, आइसक्रीम आदि, दिन में सोना और रात में जागना छोड़ दे।इन परहेजों का सख्ती से पालन करें। दूध/दही और मीठा बिलकुल भी न खाए। अन्यथा कितनी ही दवा लेते रहो कोई भी फायदा नहीं होगा। कई वैद्य नमक बंद कहते हैं परंतु उसकी कोई जरूरत नहीं है। किसी के कहने पर चने को अधिक न खाए। चना अधिक खाने से शरीर में खून की कमी हो जाती है। काली मिर्च का प्रयोग करें। खटाई के लिए टमाटर, आवंला प्रयोग करें। अगर आप इस रोग से पीड़ित हैं और थक चुके है दवाईयां खा-खाकर, और फ़िर भी आपको आराम नहीं मिल रहा तो घबराएं नहीं। आयुर्वेद में इसका स्थायी इलाज है। जीवक आयुर्वेदा चर्म रोगों के इलाज़ आयुर्वेदिक द्वाईयों(Handmade Ayurvedic Medicines) एवं पंचकर्म विधि से करता हैं, जिसके अच्छे परिणाम देखे गए हैं। अतिरिक्त जानकारी के लिए आप हमें सम्पर्क कर सकते हैं, हमारे फ़ोन नम्बर वैबसाइट पर उपलब्ध हैं।
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श्वसन नलिका में किसी संक्रमण और रोग के कारण खांसी आना और सांस लेने में तकलीफ़ होना, अस्थमा रोग (दमा रोग) कहलाता है। आपने किसी न किसी को सांस लेने में मुश्किल होने पर इंहेलर पम्प का इस्तेमाल करते देखा होगा। यह किसी भी उम्र में किसी को भी हो सकती है। इस बीमारी में श्वसन नलिका में अंदर की तरह सूजन आ जाती है। इस सूजन के कारण सांस की नली काफ़ी संवेदनशील हो जाती है। जिससे फेफड़ों में हवा कम पहुंचती है।
अस्थमा एक प्रकार की एलर्जी है, जिस कारण सांस लेने में तकलीफ़ हो जाती है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सांस लेने में दिक़्क़त महसूस करता है, अक्सर उसकी सांस फूल जाती है या फिर सांस लेने में परेशानी होती है। अस्थमा रोग दो तरह का होता है – स्पेसिफ़िक और नॉनस्पेसिफ़िक ।
1. स्पेसिफ़िक इसमें किसी एलर्जी के कारण सांस फूलने लगती है।
2. नॉन स्पेसिफ़िक इसमें भारी काम करने पर, मौसम में बदलाव या फिर आनुवांशिक कारणों से समस्या होती है।
आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज करने के सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि इनके साइड इफ़ेक्ट नहीं होते हैं, और बीमारी का जड़ से इलाज होता है।
अस्थमा के उपचार के लिए आयुर्वेदिक इलाज़ बेहतर तरीका है, जीवक आयुर्वेदा में अस्थमा के मरीजों को अच्छा लाभ मिला है। यदि मरीज़ को समय पर दवाओं से इलाज किया जाए तो इस बीमारी का जड़ से इलाज सम्भव है।
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गॉलब्लैडर कैंसर देश में एक गंभीर समस्या बना हुआ है, गॉलब्लैडर कैंसर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होता है। दरअसल पित्ताशय की पथरी वाले लोगों में गॉलब्लैडर कैंसर या बाईल डक्ट कैंसर होने का जोखिम अधिक होते हैं। बाईल डक्ट कैंसर के मामले एशिया में सबसे अधिक पाए जाते हैं। ये लिवर फ्ल्यूहक पैरासाईट, स्लेरोसिंग कोलेनजाईटिस, अल्सिरेटिव कोलाईटिस और साइरोसिस तथा सिरोसिस संक्रमणों से जुड़े होते हैं। कैसे पहचाने गॉलब्लैडर कैंसर और क्या है इसका कारक इस बारे में जानकारी दे रहे हैं जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव।
पेट के ऊपरी हिस्से में यकृत के नीचे मौजूद पित्ताशय अर्थात गॉलब्लैडर एक छोटा, नाशपाती के आकार के अंग होता है, इसकी कोशिकाओं में अनियंत्रित बढ़त होने पर यह गॉलब्लैडर पित्ताशय और बाईल डक्ट कैंसर बन जाता है।
पेट दर्द: पित्ताशय के कैंसर में अधिकांश लोगों को पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में दर्द होता है। यदि पित्त की पथरी या कैंसर पित्त नली (ब्लाॅक) को अवरुद्ध कर रहा है तो तेज दर्द हो सकता हैं।
मतली या उल्टी: पीलिया: पित्ताशय के कैंसर से ग्रसित 50% व्यक्तियों में पीलिया होता है।
पीलिया मे त्वचा और आँखो का सफेद हिस्सा पीला हो जाता है। पीलिया रक्त में बिलिरूबिन (एक रसायन जो पित्त को पीला रंग देता है) के संचयन होने के कारण होता है। पित्त जिगर से आँतो में प्रवाह नही कर पाता। इस वजह से बिलिरूबिन रक्त व उत्तकों में जमा हो जाता हैं। यह खुजली, पीला मूत्र या हल्के रंग का मल जैसे लक्षण पैदा कर सकता है। पीलिया होने का यह मतलब नहीं की आपको पित्ताशय का कैंसर है। पीलिया का एक और आम कारण जिगर में एक वायरस संक्रमण (हैपेटाइटिस) है। लेकिन अगर पीलिया जी.बी.सी के कारण है, तो यह कैंसर के एक उन्नत चरण को इंगित करता है।
पेट में गाँठ: यदि कैंसर का विकास पित्त नलिकाओं को अवरुद्ध कर देता है तो पित्ताशय की थैली का आकार अपने सामान्य आकार से बड़ा हो जाता है। यह पेट के दाहिने हिस्से में एक गाँठ के रूप में उभर सकता है।
मोटापा- अत्यधिक मोटापा विभिन्न तरह के कैंसर के खतरे को बढ़ा देता है जिनमें पित्ताशय का कैंसर भी शामिल है। मोटापे का सीधा संबंध पित्ताशय के कैंसर से है। मोटापे संबंधी कैंसरो से महिलाओं में गर्भाशय का कैंसर और पुरुषों में लिवर कैंसर पहले स्थान पर है और पित्ताशय का कैंसर दूसरे स्थान पर हैं। मोटापा पित्त की पथरी के लिये जोखिम कारक है जिसका पित्ताशय के कैंसर से सीधा संबंध है। ऐसा अनुमान है कि पुरुषो में दस में से एक एवं महिलाओं में पाँच में से एक पित्ताशय के कैंसर का सीधे मोटापे से संबंध है।
आहार: आहार में प्रोटीन और वसा की अधिकता तथा सब्जियों, फलों व फाइबर की कम मात्रा जी.बी.सी के लिये एक जोखिम कारक है।
आयुर्वेद में रस रसायन का उपयोग कर गॉलब्लैडर कैंसर को पूर्णतः समाप्त किया जा सकता है, जीवक आयुर्वेदा में गॉलब्लैडर कैंसर के विभिन्न मरीजों का इलाज़ हुआ है। बिभिन्न प्रकार के रस रसायन एवं पंचकर्मा विधि का उपयोग कर गॉलब्लैडर कैंसर का इलाज़ सम्भव हुआ है।