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ब्लड कैंसर का इलाज आयुर्वेद में पूरी तरह सम्भव

blood cancerब्लड कैंसर यानि एक्यूट माइलॉइड ल्यूकीमिया।   ब्रिटेन के डॉक्टरों की मानें तो ब्लड कैंसर से पहले खून में गड़बड़ी यानी ब्लड डिसऑर्डर होता है। अगर समय रहते डिसऑर्डर का पता लगा लिया जाए तो उसे कैंसर में तब्दील होने से रोका जा सकता है ।

क्या है एक्यूट माइलॉइड ल्यूकीमिया:-

यह खून एवं बोन मैरो यानी अस्थिमज्जा का एक प्रकार का कैंसर है। दरअसल हमारी हड्डियों के अंदर पाई जाने वाली मज्जा ब्लड स्टेम सेल (अपरिपक्व कोशिकाएं) पैदा करता है। यह कोशिकाएं विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ परिपक्व होती हैं। इन्हीं से सफेद रक्त कणिका संक्रमण से लड़ती हैं। लाल रक्त कणिका पूरे शरीर में ऑक्सीजन पहुंचाती हैं और प्लेटलेट्स थक्का बनाकर खून को बहने से रोकती हैं, तैयार होती हैं।
एक्यूट माइलॉइड ल्यूकीमिया में ऐसा विकार पैदा हो जाता है कि सफेद रक्त कणिकाएं परिपक्व होती ही नहीं। वहीं कई लाल रक्त कणिकाएं और प्लेटलेट्स में भी खराबी आने लगती है। अगर समय पर सही इलाज न हो तो यह कैंसर बड़ी तेजी से बेहद खराब दशा में पहुंच जाता है।

ल्यूकेमिया ब्लड कैंसर:-

ल्यूकेमिया होने पर कैंसर के सेल्स शरीर के रक्त बनाने की प्रक्रिया में दखल देने लगते हैं। ल्यूकेमिया रक्त के साथ-साथ अस्थि मज्जा पर भी हमला करता है। इसकी वजह से रोगी को चक्कर आना, खून की कमी होना, कमजोरी होना और हड्डियों में दर्द होने की समस्या होती है। ल्यूकेमिया होने का पता रक्त की जांच से चलता है जिसमें विशिष्ट प्रकार के रक्त कोशिकाओं को गिना जाता है।

लिंफोमाज ब्लड कैंसर:-

लिंफोमाज ब्लड कैंसर एक प्रकार के सफेद रक्त कोशिकाओं को प्रभावित कर लिम्फोसाइट्स में होता है। लिंफोमाज ब्लड कैंसर के लक्षण ट्यूमर की जगह व आकार पर निर्भर करते हैं। इसकी शुरुआत गर्दन में, भुजाओं के नीचे व पेट व जांघों के बीच वाले भाग में सूजन से होती है।
मल्टीपल मायलोमा ब्लड कैंसर:-
मल्टीपल मायलोमा ब्लड कैंसर के शिकार ज्यादातर बुजुर्ग लोग होते हैं। इसमें सफेद रक्त कोशिकाओं के एक प्रकार प्लाजमा प्रभावित होते हैं। इसके इलाज के लिए रेडिएशन, कीमोथेरेपी व अन्य दवाओं का प्रयोग किया जाता है।

ब्लड कैंसर का निदान:-

खून की जांच : ब्लड कैंसर के निदान के लिए कंप्लीट ब्लड काउंट किया जाता है। इसको सीबीसी भी कहा जाता है। खून के नमूने में विभिन्न प्रकार की रक्त कोशिकाएं होती हैं। जब खून में कोशिकाओं की संख्या ज्यादा मिलती है या खून में जो भी कोशिकाएं होती हैं वह बहुत छोटी होती हैं और असामान्य कोशिकाएं पायी जाती हैं तब जांच से ब्लड कैंसर का पता लगाया जा सकता है।
एक्सरे : सीने का एक्से-रे करके डॉक्टर यह पता लगा सकते हैं कि कैंसर की कोशिकाएं फेफडों में कहां तक फैल गई हैं। चेस्ट एक्स-रे से लिम्फ नोड्स में रक्त कैंसर के संक्रमण का पता लगाया जाता है। फेफडों में कैंसर की कोशिकाओं के संक्रमण का पता एक्स-रे के जरिए किया जाता है।
ट्यूमर मार्कर टेस्ट: ब्लड कैंसर के निदान के लिए चिकित्सक ट्यूमर मार्कर टेस्ट करते हैं। ट्यूमर मार्कर से शरीर के ऊतकों, खून और मूत्र का टेस्ट किया जाता है। जब कैंसर के सेल्स उभरे हुए होते हैं तब इस जांच से रक्त कैंसर का पता लगाया जा सकता है।
यूरीन जांच : ब्लड कैंसर की जांच के लिए मूत्र के सैंपल की जांच की जाती है। माइक्रोस्कोप के जरिए मूत्र से ब्लड कैंसर के सेल्स की जांच की जाती है। मूत्र में एपिथेलियल सेल्स होती हैं जो कि मूत्र के मार्ग पर होती हैं और कैंसर के सेल्स इस मूत्र के रास्ते से बाहर निकलते हैं जिसको माइक्रोस्कोप के जरिए खोजा जा सकता है। इस जांच को यूरीन सीटोलॉजी टेस्ट कहा जाता है। कैंसर के सेल्स जब ज्यादा खतरनाक हो जाते हैं तब इस टेस्ट से इसकी जांच की जा सकती है।

कैंसर के आठ लक्षण:-

पेशाब में आने वाले खून
खून की कमी की बीमारी (एनीमिया)
शौच के रास्ते खून आना
खांसी के दौरान खून का आना
स्तन में गांठ
कुछ निगलने में दिक्कत होना
मीनोपॉस के बाद खून आना
प्रोस्टेट के परीक्षण के असामान्य परिणाम
जीवक अयुर्वेदा के औषधियों से ब्लड कैंसर के मरीजो पर सफल परिणाम मिलें हैं।जीवक आयुर्वेदा की रस रसायन चिकित्सा के द्वारा मज्जा धातु में अनियमित कोशिकाओं के बढ़ने की प्रक्रिया प्रभावित होती हैं।आगे मेटास्टेसिस की प्रक्रिया रुक जाती हैं ।मरीज में धीरें धीरें इम्प्रूवमेंट दिखाई देने लगता हैं।जीवक आयुर्वेदा क चिकित्सक की देख रेख में चिकित्सा करने पर सफल परिणाम मिलते हैं।


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सोराइसिस और एक्जिमा जैसे त्वचा रोग आयुर्वेद से होंगे छू मंतर

सोराइसिस (Psorisis) त्वचा का एक ऐसा रोग है जो पूरे शरीर की त्वचा पर तेजी से फैलता है। इसमें त्वचा में जलन होती है और सारी त्वचा लाल हो जाती है। त्वचा पर छोटे या बड़े आकार के धब्बे हो जाते हैं जो छोटे छोटे धब्बों से मिलकर बने होते हैं। इनमें शुरुआत मे प्रायः पस (PUS) होता है जो बाद में सूख जाता है। इन धब्बों/चकतों का रंग गुलाबी या चमकदार सफ़ेद होता है जो पुराना होने पर राख़ के रंग जैसा काला हो जाता है।
ये चकत्ते 2 मिलीमीटर से 1 सेंटीमीटर तक के होते हैं। सोराइसिस (Psorisis) प्रायः हाथ की हथेलियों और पैर की पगतलियों से शुरू होता है। सोराइसिस में त्वचा में जलन होती है। ऐसा लगता है कि जैसे कोई बिच्छू का डंक लगा हो। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे आटो इम्यून डीजीज (Auto Immune Disease) माना गया है। इस तरह के रोगों में शरीर का रक्षा तंत्र (श्वेत रक्त कणिकाएं) शरीर पर ही हमला कर देता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस रोग का कोई भी स्थायी इलाज नहीं है केवल स्टीरायड्स (Steroids) (ग्लूकोकोर्टिकायड) द्वारा इसके लक्षणों में आराम पहुंचाया जाता है। जब भी रोगी को परेशानी जैसे जलन, खुजली आदि बढ़ती तो रोगी को केनकोर्ट का इन्जैकशन लगाया जाता है।  लेकिन आयुर्वेद में इसका ईलाज 100% सम्भव है आत्मविश्वास, धर्य और परहेज का पालन जरुरी है।

एक्जिमा (Eczema) भी त्वचा का जटिल रोग है। त्वचा में जलन, दर्द व लाली दिखाई देती है जो कुछ दिन बाद कालिमा में बादल जाती है। एक्जिमा की शुरुआत त्वचा के मोड़ों जैसे कुहनी, गर्दन का पिछला भाग पैर का ऊपरी भाग, हथेली के पिछले हिस्से और घुटनों के नीचे वाले हिस्सों से होती है। एक्जिमा में छोटी, छोटी लाल रंग की फुंसिया निकलती हैं और बाद में काली हो जाती हैं। एक्जिमा में भी केवल स्टीरायड(Steroids) वर्ग की दवाइयाँ दी जाती हैं। ये भी आटो इम्यून डीजीज(Auto Immune Disease) है।

आयुर्वेद और सोराइसिस

आयुर्वेद में त्वचा के सभी रोगों को कुष्ठ नाम से कहा गया है। चरक संहिता मे लिखा है – स्पर्श इंद्रिय (त्वचा) को विकृत करने वाले रोग का नाम कुष्ठ है सोराइसिस को विसर्प कुष्ठ कहा गया है। सुश्रुत संहिता निदान में कहा गया है “त्वचा, रक्त, मांस को दूषित करके शीघ्र ही फैलता है इसमें बैचैनी, जलन, दर्द (जैसे काँटा चुभनाया मधुमक्खी के डंक की तरह दर्द) और त्वचा के स्पर्शज्ञान (Feeling) का कम होना आदि लक्षण पाए जाते हैं उसे विसर्प कुष्ठ कहते हैं”

आयुर्वेद में एक्जिमा

आयुर्वेद में एक्जिमा को चर्मदल कहा गया है। चरक संहिता चिकित्सा स्थान, अध्याय 7 श्लोक 24 में लिखा है – जिस चर्म रोग में त्वचा में लाल रंग दिखाई दे, खुजली हो रही हो, फफोले निकले हों, वेदना (त्वचा के जिस हिस्से मे एक्जिमा है वहाँ पर दर्द) हो, ऊपर से त्वचा फटती हो और जिसमे स्पर्श (Feeling) सहन न होता हो अर्थात एक्जिमा के स्थान पर छूने से भी परेशानी हो उसे चर्मदल कहते हैं।आयुर्वेद की द्रृष्टि से ये दोनों रोग वात पित्त के बढ़ाने से होते हैं दोनों के लक्षण कुछ हद तक समान है इसलिए इन दोनों की आधुनिक तथा आयुर्वेदिक चिकित्सा भी एक समान है।

परहेज

(किसी भी चर्म रोग मे ये चीजें छोड़ दे) मांस, दूध, दही, लस्सी, तेल (सरसों के तेल को छोड़ कर), कुलथी की दाल, उरद(माह) की दाल, सेम, ईख के बने पदार्थ (चीनी, गुड खांड, मिश्री आदि), पिट्ठी से बनी वस्तुएं जैसे दहीबड़ा, कचौरी आदि, खटाई जैसे इमली, नींबू, अमचूर, कांजी आदि, विरोधी भोजन (जैसे दूध के साथ नमक, खटाई, जामुन आम आदि, घी के ऊपर ठंडा पानी, पानी में शहद आदि), अध्यशन (पहले खाए हुए भोजन के न पचने पर भी भोजन या कुछ भी ऐसे ही खा लेना), अजीर्ण (अपच) में भोजन, खाना विदाही अर्थात जलन करने वाले भोजन जैसे:- लाल/हरी मिर्च, राई, अदरक, रायता, शराब/सिरका आदि, अभिष्यन्दी जैसे:- दही, खीर, बर्फी, आइसक्रीम आदि, दिन में सोना और रात में जागना छोड़ दे।इन परहेजों का सख्ती से पालन करें। दूध/दही और मीठा बिलकुल भी न खाए। अन्यथा कितनी ही दवा लेते रहो कोई भी फायदा नहीं होगा। कई वैद्य नमक बंद कहते हैं परंतु उसकी कोई जरूरत नहीं है। किसी के कहने पर चने को अधिक न खाए। चना अधिक खाने से शरीर में खून की कमी हो जाती है। काली मिर्च का प्रयोग करें। खटाई के लिए टमाटर, आवंला प्रयोग करें।  अगर आप इस रोग से पीड़ित हैं और थक चुके है दवाईयां खा-खाकर, और फ़िर भी आपको आराम नहीं मिल रहा तो घबराएं नहीं। आयुर्वेद में इसका स्थायी इलाज है। जीवक आयुर्वेदा चर्म रोगों के इलाज़ आयुर्वेदिक द्वाईयों(Handmade Ayurvedic Medicines) एवं पंचकर्म विधि से करता हैं, जिसके अच्छे परिणाम देखे गए हैं। अतिरिक्त जानकारी के लिए आप हमें सम्पर्क कर सकते हैं, हमारे फ़ोन नम्बर वैबसाइट पर उपलब्ध हैं।


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अस्थमा से घबराएं नहीं, आयुर्वेद में है पूर्ण इलाज़

श्वसन नलिका में किसी संक्रमण और रोग के कारण खांसी आना और सांस लेने में तकलीफ़ होना, अस्थमा रोग (दमा रोग) कहलाता है। आपने किसी न किसी को सांस लेने में मुश्किल होने पर इंहेलर पम्प का इस्तेमाल करते देखा होगा। यह किसी भी उम्र में किसी को भी हो सकती है। इस बीमारी में श्वसन नलिका में अंदर की तरह सूजन आ जाती है। इस सूजन के कारण सांस की नली काफ़ी संवेदनशील हो जाती है। जिससे फेफड़ों में हवा कम पहुंचती है।
अस्थमा एक प्रकार की एलर्जी है, जिस कारण सांस लेने में तकलीफ़ हो जाती है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सांस लेने में दिक़्क़त महसूस करता है, अक्सर उसकी सांस फूल जाती है या फिर सांस लेने में परेशानी होती है। अस्थमा रोग दो तरह का होता है – स्पेसिफ़िक और नॉनस्पेसिफ़िक ।

1. स्पेसिफ़िक इसमें किसी एलर्जी के कारण सांस फूलने लगती है।
2. नॉन स्पेसिफ़िक इसमें भारी काम करने पर, मौसम में बदलाव या फिर आनुवांशिक कारणों से समस्या होती है।

अस्थमा रोग के कारण

  •  मिलावटी खान पान और ग़लत आदतें
  •  तनाव, क्रोध या डर
  •  ब्लड में संक्रमण
  •  पालतू जानवरों से एलर्जी
  •  मद्यपान या मादक पदार्थों का सेवन
  • खांसी, जुकाम और नज़ला
  •  मिर्च मसालेदार चीज़ें खाना
  •  फेफड़े और आंतों की कमज़ोरी
  •  सांस की नली में धूल जाना या ठंड लगना
  •  मोटापा
  • अनुवांशिकता; परिवार में पहले किसी को दमा रोग हो
  • दवाइयों के प्रयोग से कफ़ सूख जाना
  • प्रदूषण
  • महिलाओं के हार्मोंस का बदलाव

अस्थमा रोग के लक्षण

  • सांस लेने में अत्यधिक परेशानी
  • बीमारी के चलते सूखी खांसी
  • सख़्त और बदबूदार कफ़
  • सांस लेते समय ज़ोर लगाने पर चेहरा लाल होना
  • छाती में जकड़न महसूस होना
  • ज़ोर ज़ोर सांस लेने के बाद थक जाना और पसीना आना

अस्थमा रोग में खान-पान

  • हल्का और जल्दी पचने वाला भोजन खाएँ
  • लौकी, तरोई, टिंडे, मेथी, अदरक और लहसुन को खाने में प्रयोग करें
  • मोटे पिसे आटे की बनी रोटियाँ और दलियाँ खाएँ
  • मुन्नका और खजूर खाएँ
  • गुनगुना पानी पिएँ

दमा का आयुर्वेदिक उपचार

आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज करने के सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि इनके साइड इफ़ेक्ट नहीं होते हैं, और बीमारी का जड़ से इलाज होता है।

  • 2 चम्मच आंवले का पाउडर किसी कप में डालकर इसमें 1 चम्मच शहद अच्छे से मिक्स करें। हर दिन सुबह इसे खाने से अस्थमा कंट्रोल में रहता है।
  • दो तिहाई हिस्सा गाजर जूस और एक तिहाई हिस्सा पालक जूस, एक गिलास जूस पिएँ।
  • जौं, बथुआ, अदरक और लहसुन का सेवन अस्थमा के रोगी के लिए फायदेमंद है।

कहाँ करें उपचार

अस्थमा के उपचार के लिए आयुर्वेदिक इलाज़ बेहतर तरीका है, जीवक आयुर्वेदा में अस्थमा के मरीजों को अच्छा लाभ मिला है।  यदि मरीज़ को समय पर दवाओं से इलाज किया जाए तो इस  बीमारी का जड़ से इलाज सम्भव है।


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गॉलब्लैडर (पित्ताशय) और बाईल डक्ट कैंसर

Gall-Bladderगॉलब्लैडर कैंसर देश में एक गंभीर समस्या बना हुआ है, गॉलब्लैडर कैंसर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होता है। दरअसल पित्ताशय की पथरी वाले लोगों में गॉलब्लैडर कैंसर या बाईल डक्ट कैंसर होने का जोखिम अधिक होते हैं। बाईल डक्ट कैंसर के मामले एशिया में सबसे अधिक पाए जाते हैं। ये लिवर फ्ल्यूहक पैरासाईट, स्लेरोसिंग कोलेनजाईटिस, अल्सिरेटिव कोलाईटिस और साइरोसिस तथा सिरोसिस संक्रमणों से जुड़े होते हैं। कैसे पहचाने गॉलब्लैडर कैंसर और क्या है इसका कारक इस बारे में जानकारी दे रहे हैं जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव।

पेट के ऊपरी हिस्से में यकृत के नीचे मौजूद पित्ताशय अर्थात गॉलब्लैडर एक छोटा, नाशपाती के आकार के अंग होता है, इसकी कोशिकाओं में अनियंत्रित बढ़त होने पर यह गॉलब्लैडर पित्ताशय और बाईल डक्ट कैंसर बन जाता है।

पित्ताशय के कैंसर के सामान्य लक्षण

पेट दर्द: पित्ताशय के कैंसर में अधिकांश लोगों को पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में दर्द होता है। यदि पित्त की पथरी या कैंसर पित्त नली (ब्लाॅक) को अवरुद्ध कर रहा है तो तेज दर्द हो सकता हैं।

मतली या उल्टी: पीलिया: पित्ताशय के कैंसर से ग्रसित 50% व्यक्तियों में पीलिया होता है।
पीलिया मे त्वचा और आँखो का सफेद हिस्सा पीला हो जाता है। पीलिया रक्त में बिलिरूबिन (एक रसायन जो पित्त को पीला रंग देता है) के संचयन होने के कारण होता है। पित्त जिगर से आँतो में प्रवाह नही कर पाता। इस वजह से बिलिरूबिन रक्त व उत्तकों में जमा हो जाता हैं। यह खुजली, पीला मूत्र या हल्के रंग का मल जैसे लक्षण पैदा कर सकता है। पीलिया होने का यह मतलब नहीं की आपको पित्ताशय का कैंसर है। पीलिया का एक और आम कारण जिगर में एक वायरस संक्रमण (हैपेटाइटिस) है। लेकिन अगर पीलिया जी.बी.सी के कारण है, तो यह कैंसर के एक उन्नत चरण को इंगित करता है।
पेट में गाँठ: यदि कैंसर का विकास पित्त नलिकाओं को अवरुद्ध कर देता है तो पित्ताशय की थैली का आकार अपने सामान्य आकार से बड़ा हो जाता है। यह पेट के दाहिने हिस्से में एक गाँठ के रूप में उभर सकता है।

जीवनशैली सम्बंधित कारक

मोटापा- अत्यधिक मोटापा विभिन्न तरह के कैंसर के खतरे को बढ़ा देता है जिनमें पित्ताशय का कैंसर भी शामिल है। मोटापे का सीधा संबंध पित्ताशय के कैंसर से है। मोटापे संबंधी कैंसरो से महिलाओं में गर्भाशय का कैंसर और पुरुषों में लिवर कैंसर पहले स्थान पर है और पित्ताशय का कैंसर दूसरे स्थान पर हैं। मोटापा पित्त की पथरी के लिये जोखिम कारक है जिसका पित्ताशय के कैंसर से सीधा संबंध है। ऐसा अनुमान है कि पुरुषो में दस में से एक एवं महिलाओं में पाँच में से एक पित्ताशय के कैंसर का सीधे मोटापे से संबंध है।
आहार: आहार में प्रोटीन और वसा की अधिकता तथा सब्जियों, फलों व फाइबर की कम मात्रा जी.बी.सी के लिये एक जोखिम कारक है।

आयुर्वेद में है इसका इलाज़

आयुर्वेद में रस रसायन का उपयोग कर गॉलब्लैडर कैंसर को पूर्णतः समाप्त किया जा सकता है, जीवक आयुर्वेदा में गॉलब्लैडर कैंसर के विभिन्न मरीजों का इलाज़ हुआ है। बिभिन्न प्रकार के रस रसायन एवं पंचकर्मा विधि का उपयोग कर गॉलब्लैडर कैंसर का इलाज़ सम्भव हुआ है।


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इस बार होली में घर पर बनायें प्राकृतिक रंग

natural-colorहोली जैसे जैसे नज़दीक आ रही है, वैसे वैसे सभी लोग होली की तैयारी शुरू कर देते हैं। होली पर क्या क्या करना है ? कौन से कपड़े पहने, कौन से गाने पर धमाल करें और किस रंग से अपनों को रंग कर प्यार का ख़ास इज़हार करें।

होली के दिन पास आते ही सबके ज़ुबान पर एक ही बात आ जाती है –“बुरा न मानो होली है”। लेकिन कोई वाक़ई बुरा न माने इसके लिए आपने क्या तैयारियाँ की हैं?

क्या आपने प्राकृतिक रंग बना लिए हैं ताकि सुरक्षित होली खेल सकें? अब आपके मन में सवाल उठ रहे होंगे – प्राकृतिक रंग, वो क्या होते हैं?

जो रंग हम अभी तक खेलते आये हैं उन रंगों में क्या बुराई है?

इन सभी सवालों का जबाब दे रहे हैं जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव ।

आजकल प्रयोग होने वाले केमिकल वाले रंग त्वचा और स्वास्थ्य दोनों को बेहद नुक़सान पहुँचाते हैं।

हरे रंग में कॉपर सल्फ़ेट होता है जो आँखों के लिए बहुत ही ख़तरनाक होते हैं, यहाँ तक कि मनुष्य अंधेपन का शिकार हो सकता है।

सिल्वर रंग में एल्युमिनियम ब्रोमाइड होता है जो कैंसर का कारण बन सकता है।

लाल रंग में मरकरी सल्फ़ाइट होता है जो त्वचा के लिए तो बहुत ही हानिकारक होता है।

बैंगनी रंग में क्रोमियम आयोडाइड होता है जो एलर्जी और दमा के रोगी के लिए बहुत ही ख़तरनाक हो सकता है।

जिससे होली यानि रंगों का त्योहार ख़ुशी का कारण न बनकर दुख का कारण भी बन सकता है।
होली को ख़ुशी और प्यार से अपनों के साथ मनाने के लिए इस होली पर आप सभी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करें। अबकि होली पर मिलकर ख़ूब धमाल मचाएं। होली खेलने के लिए प्राकृतिक रंग आप घर पर भी बना सकते हैं। कैसे – आइए जानते हैं?

नारंगी रंग

– नारंगी रंग बनाने के लिए टेसू या पलाश के फूल को पीसकर उसको पानी में मिला दें।
– नारंगी रंग का गुलाल बनाने के लिए पलाश के फूल का पाउडर चंदन के पाउडर में मिला दें। इस रंग से सभी के गालों पर प्यार की मिठास छोड़ दें।

पीला रंग

– पीला रंग बनाने के लिए हल्दी को पानी में मिला दें या फिर गेंदें के फूल को पीसकर पानी में मिला दें। यह रंग रूप में निखार भी लाता है और होली के रंग का आनंद भी प्रदान करता है।

– पीला गुलाल बनाने के लिए हल्दी को उसके दुगुने मात्रा में बेसन के साथ मिला दें। अगर बेसन न हो तो उसके स्थान पर आप हल्दी को मुल्तानी मिट्टी के साथ मिला सकते हैं। दोनों त्वचा के लिए बेहद लाभकारी है।

नीला रंग

– नीले गुड़हल के फ़ूल को पीसकर इसे पानी में मिलाकर नीला रंग बना लें।
– नीला गुलाल बनाने के लिए नीले गुड़हल के फ़ूल को सुखाकर और इसको पीस कर पाउडर बना लें।

लाल रंग

– चुकन्दर, अनार के छिलके, टमाटर या गाजर को पीसकर पानी में मिला दें और इस होली में अपने प्यार को लाल रंग से रंगकर प्यार का इज़हार भी कर दें।
– लाल रंग का गुलाल बनाने के लिए गुलाब की पंखुड़ियों या लाल चंदन को पीसकर लाल गुलाल बना सकते हैं।

हरा रंग

– आप धनिया या पालक के पत्ते को पीसकर पानी में मिला दें और होली में नैचुरल हरे रंग से सभी को इस रंग में सराबोर कर दें।

– हरा गुलाल बनाने के लिए मेंहदी के पाउडर को समान मात्रा में आटे के साथ मिला दें। यह बालों के लिए लाभप्रद है।

बैंगनी रंग

– चुकंदर को बारीक़ काट लें और रात भर पानी में भिगोकर रख दें। अगले दिन सुबह इसे उबाल कर छान लें और इसका रस निकाल लें। इस रस को पानी में मिलाकर सुंदर बैंगनी रंग से नैचुरल बैगनी रंग से होली खेलने का आनंद लें।

– बैगनी रंग के लिए आप जामुन को पीस लें और इसे पानी में मिला दें।

काला रंग

– काले रंग के अंगूर के बीज को निकालकर अच्छी तरह से पेस्ट बना लें। फिर इसको पानी में अच्छी तरह से मिला लें।

इन प्राकृतिक रंगों से आप सुरक्षित होली मनाएँ। दोस्तों होली का ये प्यारा त्योहार आप सबके जीवन में कई सारे प्यार के रंग और ख़ुशियाँ भर दे।


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वसंत ऋतु में कैसी हो आपकी ऋतुचर्या

basantबसंत ऋतु में कैसा हो आपका खान पान बता रहे हैं बता रहे हैं जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव 

वसंत ऋतु में आयुर्वेद ने खान-पान में संयम की बात कहकर व्यक्ति एवं समाज की नीरोगता का ध्यान रखा है। इस ऋतु में लाई, भूने हुए चने, ताजी हल्दी, ताजी मूली, अदरक, पुरानी जौ, पुराने गेहूँ की चीजें खाने के लिए कहा गया है। इसके अलावा मूँग बनाकर खाना भी उत्तम है। नागरमोथ अथवा सोंठ डालकर उबाला हुआ पानी पीने से कफ का नाश होता है। मन को प्रसन्न करें एवं हृदय के लिए हितकारी हों ऐसे आसव, अरिष्ट जैसे कि मध्वारिष्ट, द्राक्षारिष्ट, गन्ने का रस, सिरका आदि पीना लाभदायक है। वसंत ऋतु में आने वाला होली का त्यौहार इस ओर संकेत करता है कि शरीर को थोड़ा सूखा सेंक देना चाहिए जिससे कफ पिघलकर बाहर निकल जाय। सुबह जल्दी उठकर थोड़ा व्यायाम करना, दौडऩा अथवा गुलाटियाँ खाने का अभ्यास लाभदायक होता है। मालिश करके सूखे द्रव्य आँवले, त्रिफला अथवा चने के आटे आदि का उबटन लगाकर गर्म पानी से स्नान करना हितकर है।

इस ऋतु में कड़वे नीम में नयी कोंपलें फूटती हैं। नीम की 15-20 कोंपलें 2-3 काली मिर्च के साथ चबा-चबाकर खानी चाहिए। 15-20 दिन यह प्रयोग करने से वर्षभर चर्मरोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है एवं आरोग्यता की रक्षा होती है। इसके अलावा कड़वे नीम के फूलों का रस 7 से 15 दिन तक पीने से त्वचा के रोग एवं मलेरिया जैसे ज्वर से भी बचाव होता है। धार्मिक ग्रंथों के वर्णनानुसार चैत्र मास के दौरान अलौने व्रत (बिना नमक के व्रत) करने से रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है एवं त्वचा के रोग, हृदय के रोग, उच्च रक्तचाप (हाई बी.पी.), गुर्दा (किडनी) आदि के रोग नहीं होते।

वसंत ऋतु दरअसल शीत और ग्रीष्म का सन्धिकाल होती है। सन्धि का समय होने से वसंत ऋतु में थोड़ा-थोड़ा असर दोनों ऋतुओं का होता है। प्रकृति ने यह व्यवस्था इसलिए की है ताकि प्राणीजगत शीतकाल को छोडऩे और ग्रीष्मकाल में प्रवेश करने का अभ्यस्त हो जाए। अत: वसंत ऋतु सन्तुलन बनाने की ऋतु है क्योंकि अब ऋतु परिर्वतन के कारण आहार विहार में परिर्वतन करना आवश्यक हो जाता है।

सम्भावित रोग

श्वास, खांसी, बदनदर्द, ज्वर, वमन, अरुचि, भारीपन, भूख कम लगना, कब्ज, पेट दर्द, कृमिजन्य विकार आदि होते हैं।

प्रयोग करें

  • शरीर संशोधन हेतु वमन, विरेचन नस्य, कुंजल आदि।
  • रूखा, कड़वा तीखा, कसैले रस वाले पदार्थों का सेवन।
  • सुबह खाली पेट बड़ी हरड़ का 3-4 ग्राम चूर्ण शहद के साथ रसायन के समान लाभ पहुंचाता है।
  • शुद्ध घी, मधु और दूध की असमान मात्रा में मिश्रण का सेवन करने से शरीर में जमा कफ बाहर निकल आता है।
  • एक वर्ष पुराना जौ, गेहुं व चावल का उपयोग करना उचित है।
  • इस ऋतु में ज्वर बाजरा मक्का आदि रूखे धानों का आहार श्रेष्ठ है।
  • मूंग, मसूर, अरहर, चना की दाल उपयोगी है।
  • मूली, घीया, गाजर, बथुआ, चौलाई ,परवल, सरसों, मैथी, पत्तापालक, धनिया, अदरक आदि का सेवन करना हितकर है।
  • हल्दी से पीला किया गया भोजन स्वास्थ के लिए बहुत उपयोगी होता है क्योंकि हल्दी भी कफनाशक है।
  • सूर्योदय से पूर्व उठकर शौचादि से निवृत होकर योगासन करना चाहिए।
  • तेल की मालिश करना उत्तम है।
  • प्रयोग न करें
  • नए- अन्न, शीतल, चिकनाई युक्त, भारी, खट्टे एवं मीठे द्रव्य, उड़द, आलू, प्याज, गन्ना, नए गुड़, भैंस का दूध व सिंघाड़े का सेवन मना है।
  • दिन में सोना, एक स्थान पर लम्बे समय तक बैठे रहना उचित नहीं है।
  • ठंडे पेय, आइसक्रीम, बर्फ के गोले चॉकलेट, मैदे की चीजें, खमीरवाली चीजें, दही आदि पदार्थ बिल्कुल त्याग देने चाहिए।
  • पचने में भारी पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • चावल खाना ही हो तो दिन में खाना चाहिए, रात में नहीं।

आयुर्वेद के अनुसार बसंत ऋतु में शरीर के श्रुतों ( बॉडी चैनेल्स ) की शुद्धि के लिए पंचकर्म चिकित्सा मुख्य रुप से वमन क्रिया उत्तम मानी जाती है। इस क्रिया के जरिये प्रकुपित कफ शरीर से बाहर निकलता है। पंचकर्म हमेशा आयुर्वेदिक चिकित्सा की देखरेख में ही करना चाहिए। इसके अलावा उदर्वतन (जड़ी बूटी के पावडर के मालिश) करना और गर्म पानी से गरारे करना भी कफ को कम करने में सहायक है।


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छोटे नींबू के लाभ बड़े

नींबू एक ऐसा फल है जिसकी खुशबू मात्र से ही ताजगी का अहसास होता है। नींबू का अनोखा गुण यह है कि इसकी खट्टी खुशबू खाने से पहले ही मुँह में पानी ला देती है। चाट हो या दाल कोई भी व्यंजन इसके प्रयोग से और भी सुस्वादु हो जाता है। यह फल खट्टा होने के साथ-साथ बेहद गुणकारी भी है। आइए जानते हैं इसके कुछ प्रयोगों के बारे में-

यह वजन कम करने में मददगार है

क्या आप जानते हैं कि यदि शरीर में संतुलन की कमी है तो वजन कम करना काफी मुश्किल भरा होता है। हैप्पी- हैल्दी बॉडी और तेज दिमाग वजन कम का सबसे अच्छा तरीका है। ज्यादा क्षारीय खाना आपको खुश रखता है और पोषाहार से सम्बंधित मैगजीन्स के अनुसार क्षारीय खाना खाने वाले लोग जल्दी वजन कम कर लेते हैं। इसके अलावा नींबू में पेक्टिन फाइबर होते हैं जो कि भूख बढ़ाने में मददगार हैं। अब तक आप समझ गए होंगे यदि नहीं तो हम आपको नींबू पानी के कुछ और फायदे बता रहे हैं।
1) कृमि रोग
10 ग्राम नींबू के पत्तों का रस (अर्क) में 10 ग्राम शहद मिलाकर पीने से 10-15 दिनों में पेट के कीड़े मरकर नष्ट हो जाते हैं। नींबू के बीजों के चूर्ण की फंकी लेने से कीड़ों का विनाश होता है।
2) शिरशूल
नींबू के पत्तों का रस निकालकर नाक से सूँघे जिसे व्यक्ति को हमेशा सिरदर्द बना रहता है, उसे भी इससे शीघ्र आराम मिलता है।
3) चेहरे की सुंदरता के लिए
10 ग्राम नींबू का रस 10 बूँद ग्लिसरीन तथा 10 ग्राम गुलाबजल इन तीनों को मिलाकर रख लें। यह एक प्रकार से लोशन सा तैयार हो जाएगा। इस लोशन को प्रतिदिन सुबह स्नान के पश्चात तथा रात्रि सोने के पूर्व हल्के-हल्के मलने से चेहरा रेशम की तरह कोमल बन जाएगा।
नींबू के रस में बराबर की मात्रा में गुलाबजल मिलाकर चेहरे पर लगाएँ। आधे घंटे बाद ताजे जल से धो लें। चेहरे पर मुँहासे बिल्कुल साफ हो जाएँगे। यह प्रयोग करीब 10-15 दिनों तक करें।
4) जीभ विकार
नींबू के रस में थोड़ा सेहुड़ का दूध मिलाकर मुख में लगाने से जीभ के समस्त प्रकार के विकार मिट जाते हैं।
5) नकसीर
ताजे नींबू का रस निकालकर नाक में पिचकारी देने से नाक से खून गिरता हो, तो बंद हो जाएगा।
6) तृष्णा
किसी कारण से प्यास लगती हो, तो नींबू चूसने या शिकंजी पीने से तुरंत प्यास बंद हो जाती है। इसे तेज बुखार में दिया जा सकता है।
7) बालों का झड़ना व रूसी
नींबू के रस में दो गुना नारियल का तेल मिलाकर हल्के हाथों से सिर पर मालिश करने से बाल झड़ना बंद हो जाते है व बाल मुलायम भी हो जाते है तथा रूसी से मुक्त हो जाते हैं। यदि सिर में रूसी हो, तो नींबू के रस में नारियल का तेल मिलाकर रात को सिर में मलने से और सुबह गुनगुने जल और अरीठे के पानी से सिर धोएँ। 2-4 बार यह क्रिया करने से खुश्की नष्ट हो जाती है।
8) मिर्गी
चुटकी भर हींग को नींबू में मिलाकर चूसने से मिर्गी रोग में लाभ होगा।
9) पायरिया
नींबू का रस व शहद मिलाकर मसूड़ों पर मलते रहने से रक्त व पीप आना बंद हो जाएगा।
10) दाँत व मसूड़ों का दर्द
दाँत दर्द होने पर नींबू को चार टुकड़ों में काट लीजिए, इसके पश्चात ऊपर से नमक डालकर एक के बाद एक टुकड़ों को गर्म कीजिए। फिर एक-एक टुकड़ा दाँत व दाढ़ में रखकर दबाते जाएँ व चूसते जाएँ, दर्द में काफी राहत महसूस होगी। मसूड़े फूलने पर नींबू को पानी में निचोड़ कर कुल्ले करने से अत्यधिक लाभ होगा।
11) दाँतों की चमक
नींबू के रस व सरसों के तेल को मिलाकर मंजन करने से दाँतों की चमक निखर जाएगी।

12) हिचकी
एक चम्मच नींबू का रस व शहद मिलाकर पीने से हिचकी बंद हो जाएगी। इस प्रयोग में स्वादानुसार काला नमक भी मिलाया जा सकता है।

13) खुजली
नींबू में फिटकरी का चूर्ण भरकर खुजली वाले स्थान पर रगड़ने से खुजली समाप्त हो जाएगी।

14) जोड़ों का दर्द
इस दर्द में नींबू के रस को दर्द वाले स्थान पर मलने से दर्द व सूजन समाप्त हो जाएगी।

15) पीड़ा रहित प्रसव
यदि गर्भधारण के चौथे माह से प्रसवकाल तक स्त्री एक नींबू की शिकंजी नित्य पीए तो प्रसव बिना कष्ट संभव हो सकता है।

16) मूत्रावरोध
नींबू के बीजों को महीन पीसकर नाभि पर रखकर ठंडा पानी डालें, रुका हुआ पेशाब खुलकर व साफ आ जाता है।

17) तपेदिक
नींबू के 25 ग्राम रस में 11 तुलसी के पत्ते तथा जीरा, हींग व नमक स्वादानुसार इन सबको गर्म पानी में मिलाकर पीने से तपेदिक रोग में लाभ होगा।

18) साँस फूलना
नींबू के रस में शहद मिलाकर चाटने से काफी राहत महसूस होगी।

 


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बढ़ते वायु प्रदूषण से लड़ने का आसान तरीका, खाने में शामिल करें ये चीज़ें: जीवक आयुर्वेदा

pollutionलखनऊ, दिल्ली जैसे शहरों की जिस हवा में हम जिंदा रहने के लिए सांस ले रहे हैं, वह प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। जिन लोगों को सांस संबंधी परेशानी नहीं है, वह भी हॉस्पिटल के चक्कर काटते दिखाई दे रहे हैं। जब तक सरकार हवा की क्वालिटी सुधारने के लिए कुछ कदम उठाएगी, इतने आप कुछ पोषक तत्वों को अपने रूटीन में शामिल करके स्वस्थ रह सकते हैं। जीवक आयुर्वेदा आपको बता रहे हैं कुछ प्राकृतिक एंटी-ऑक्सिडेंट, जो आपकी बॉडी को इस खतरनाक प्रदूषण से लड़ने में मदद करेंगे।
आयुर्वेद में भी है समाधान- कई तरह की जड़ीबूटियां और मसाले आदि को आयुर्वेद में आम सांस संबंधी समस्याओं को दूर करने में इस्तेमाल किया जाता है। हल्दी एक फेमस एंटी-ऑक्सिडेंट है और प्रदूषण के जहरीले प्रभावों से फेफड़ों को बचाने के लिए हल्दी यूज़ की जाती है। हल्दी और घी को मिलाकर खाने से खांसी और अस्थमा में आराम आता है। अस्थमा अटैक के दौरान गुड़ के साथ हल्दी और मक्खन राहत के लिए दिया जा सकता है। कफ से बचाव के लिए गुड़ और प्याज़ के रस को मिलाकर लें, यह सूखे और गीले दोनों तरह के कफ में कारगार है। हरीतकी को गुड़ के साथ मिलाकर सोने से पहले और सुबह में लेने से कफ में आराम आता है। अस्थमा के दौरान आयुर्वेद कड़वी और कसैला फूड से भरपूर डाइट भी बताता है, जो मीठे और नमकीन फूड के विपरीत होती है। अस्थमा पीड़ितों के लिए गेंहू और गाय का दूध काफी फायदेमंद होता है। अदरक, काली मिर्च, तुलसी, मुलैटी, जायफल, पुदीना और ग्लैंगल सांस संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए फायदेमंद हैं।
वायु प्रदूषण के बुरे प्रभावों से बचने के लिए आप इन पोषक तत्वों को अपने रूटीन में शामिल कर सकते हैं:
विटामिन सी- यह आपके शरीर के लिए सबसे शक्तिशाली एंटी-ऑक्सिडेंट है। पानी में घुलने वाला यह विटामिन हमारी पूरी बॉडी रहता है और फ्री रैडिकल की सफाई करता है।
स्रोत : धनिए के पत्ते, चौलाई का साग, ड्रमस्टिक, पार्सले, गोभी और शलजम का साग , आंवला और अमरूद, नींबू का रस,
विटामिन ई- मानव टिशूज़ की क्षति से बचने का सबसे पहला उपाय यह वसा में घुलनशील यह विटामिन है।
स्रोत : सूरजमुखी, सैफ्फलाउर और राइस ब्रान तेल, बादाम और सूरजमुखी के बीज, मसाले और जड़ी बूटियां जैसे मिर्च पाउडर, पैप्रिका, लौंग, ओरिगौनो, बैज़ल
ओमेगा 3 फैट- यह शरीर को वायु प्रदूषण से पहुंचने वाले हानिकारक प्रभावों से बचाने में मदद करता है। दिल के स्वस्थ बनाए रखता है।
स्रोत : नट्स और बीज जैसे अखरोट, चिया के बीज, अलसी के बीज , मेथी के बीज, सरसों के बीज, हरे पत्तेदार सब्जियां, काले चने, राजमा और बाजरा आदि
अधिक जानकारी के लिए हमारे हेल्पलाइन 7704996699 पर सम्पर्क करें


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कैंसर (कर्कटा अर्बुद): कैसे करें बचाव ?

cancerकैंसर (अर्बुद) आज एक भयावह बीमरी के रूप में बढ़ रहा है हमारे आहार विहार का प्रभाव सीधा हमारे शरीर पर पड़ता है जिसके कारण हमें बड़ी बिमारियों का सामना करना पड़ता है। कैंसर (अर्बुद) क्या है कैसे होता है बता रहें है जीवक आयुर्वेदा के निदेशक टी के श्रीवास्तव।

कैंसर (अर्बुद) उन असामान्य कोशिकाओं के कारण होता है जो तेज़ी से बढ़ती हैं। आपके शरीर के लिए यह असामान्य बात है कि वह पुरानी कोशिकाओं को नई कोशिकायों से बदले, पर कैंसर की कोशिकाएँ बहुत अधिक तेज़ी से बढ़ती हैं।

कुछ कैंसर कोशिकाएँ वृद्धियाँ उत्पन्न कर सकती हैं जिन्हें अर्बुद (ट्यूमर) कहा जाता है। सभी अर्बुद आकार में बढ़ते हैं पर कुछ अर्बुद तेज़ी से बढ़ते हैं, जब कि अन्य धीमी गति से बढ़ते हैं।

अर्बुदों के प्रकार

कई बार अर्बुद कैंसरकारी नहीं होते हैं इन्हें अहानिकर अर्बुद कहा जाता है वे काफी हद तक स्वस्थ ऊतकों की कोशिकाओं जैसी कोशिकाओं से बने होते हैं। इस प्रकार का अर्बुद एक ही जगह स्थिर रहता है और वह स्वस्थ ऊतकों और अंगों में नहीं फैलता।
कैंसर के अर्बुदों को हानिकारक (मेलिग्नंट) ट्यूमर भी हानिकारक (मेलिग्नंट) कहा जाता है। इन अर्बुदों से कैंसर रक्त और लसीका (लिम्फ) प्रणालियों के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों में फैल जाता है।
जब कैंसर फैलता है, तो इसे रोग व्याप्ति (मेटास्टासिस) याप्ति (मेटास्टासिस) कहा जाता है। कैंसर की कोशिकाएँ ट्यूमर से, जिसे प्राथमिक जगह कहा जाता है, रक्त या लसीका प्रणाली के जरिये शरीर के अन्य भागों में फैल जाती हैं।

कैंसर के प्रकार

कैंसर के कई प्रकार हैं।
कार्सिनोमा कैंसर का सबसे आम प्रकार है। फेफड़े, आंत, स्तन और डिंब ग्रंथियों के कैंसर आमतौर पर
इस प्रकार के कैंसर होते हैं।
सारकोमा अस्थि, उपास्थि, वसा और मांसपेशी में पाया जाता है।
लिम्फोमा शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के लिम्फ नोडों में आरम्भ होता है। इनमें हाॅजकिन्स और गैर-हाॅजकिन्स लिम्फोमा सम्मिलित होते हैं।
ल्यूकेमिया उन रक्त कोशिकाओं में आरम्भ होता है जिनका अस्थि मज्जा में विकास होता है और जो
रक्तप्रवाह में बड़ी संख्या में पाई जाती हैं।

कैंसर के लक्षण

कैंसर के लक्षण अर्बुद के प्रकार और स्थान पर निर्भर होते हैं। हो सकता है कि कुछ कैंसरों में तब तक कोई लक्षण न हों, जब तक कि ट्यूमर बड़ा न हो जाए। आम लक्षणों में निम्नलिखित लक्षण सम्मिलित हैंः

  • अत्यधिक थकान अनुभव करना
  • अज्ञात कारण से वज़न में कमी होना
  • बुखार, कँपकँपी या रात मे पसीना आना
  • भूख में कमी
  • शारीरिक कष्ट या दर्द
  • खांसी, साँस फूलना या सीने में दर्द
  • हैज़ा, कब्ज़ या मल में रक्त
    जब किसी कैंसर का पता लगेगा, तब इस बात की जाँच करने के लिए परीक्षण किए जाएंँगे कि क्या कैंसर शरीर के अन्य अंगों में फैल गया है। स्कैनों, एक्स-रे और रक्त के परीक्षणों की आवश्यकता हो सकती है।

आपकी देखभाल

आपका चिकित्सक निम्नलिखित के आधार पर इस बातका निर्णय करेगा कि आपको किस प्रकार के देखभाल की आवश्यकता हैः

  • कैंसर का प्रकार
  • कैंसर कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है
  • क्या कैंसर शरीर के अन्य अंगों में फैल गया है
  • आपकी आयु और समग्रता में आपका स्वास्थ्य

कैंसर के सबसे आम उपचार निम्नलिखित हैंः

  • ट्यूमर और इसके पास के ऊतक को हटाने के लिए शल्यचिकित्सा (सर्जरी)
  • ट्यूमर और कैंसर की कोशिकाओं को सिकोड़ने या नष्ट करने के लिए नियंत्रित मात्राओं में विकिरण (रेडिएशन)
  • कैंसर की कोशिकाओं की वृद्धि को धीमा करने या नष्ट करने के लिए रसायनचिकित्सा (कीमोथेरेपी) दवा

लेकिन यह तीनो उपचार मरीजों के लिए नुकसानदायक है । ऑपरेशन के बाद कैंसर कोशिकाओं के बढ़ने की प्रक्रिया और तेज हो जाती है, उसके बाद रेडीएशन एवं कीमोथेरेपी के लिए सलाह दी जाती है, लेकिन रेडीएशन एवं कीमोथेरेपी की वजह से कैसर कोशिकाओं के साथ अच्छी कोशिकाओं को भी डैमेज करता है जिसकी वजह से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और कैंसर कोशिकाएं शरीर के अन्य हिस्सों से फेल जाती है और बाद में मरीज को बचाना मुश्किल हो जाता है।

आयुर्वेद में कैंसर का उपचार

आयुर्वेद द्वारा कैंसर का उपचार पूरी तरह सम्भव है। आयुर्वेद की रस-रसायन चिकित्सा द्वारा कैंसर कोशिकाओं के बढ़ने की प्रक्रिया व मेतास्टासिस की प्रक्रिया को पूरी तरह रोका जा सकता है।आयुर्वेदिक दवाओं का कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होता है और न ही शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घटती है।कमी है विश्वास की आयुर्वेद पर, अभी भी लोगों का भरोसा नहीं है कि जटिल रोगों का इलाज आयुर्वेद द्वारा हो सकता है। आयुर्वेद में कैंसर का इलाज पुरी तरह सम्भव है ।  4th stage के भी कैंसर आयुर्वेद के द्वारा ठीक होते देखे गए हैं।


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वजन कम करना चाहते हैं तो अपनाएं ये तरीके ….

fat-thinभाग दौड़ भरी जीवनशैली में बाहर का बना खाना अब आदत में शामिल होने लगा है   और व्यायाम और सैर के लिए तो न तो समय निकाल पाते है और कुछ आलस के कारण ऐसा नही कर पाते है। आधुनिक युग की जीवनशैली का तो आपको पता ही है , बहुत व्यस्त हो गयी है। आज न तो किसी के  पास  व्यायाम के लिए समय है और न ही घर पर खाना बनाकर खाने का समय है।

परिणामस्वरूप हम अपना पेट तो भर लेते है, परन्तु पोषण अधूरा रह जाता है , इसके अलावा शरीर में अनावश्यक तत्वों का समावेश हो जाता है जो की हमारी चर्बी को बढ़ा कर हमे मोटापा की समस्या का शिकार बना देते है। यह समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।  बड़े शहरों में तो इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है।  यह समस्या अनेक बीमारियो को जन्म देती है , जिससे हम बीमारियो की गिरफ्त में पड़ जाते है। और अपने शरीर को बीमारियो का घर बना रहे है। मोटापे  से थाइरोइड , हार्ट अटैक , रक्तचाप, नसों की ब्लॉकेज,  माईग्रैन और ब्रेन ट्यूमर  आदि बीमारियो का खतरा बना रहता है।

 

 वजन बढ़ने के मुख्य कारण :

  • टेलीविज़न देखते हुए स्नैक्स खाते रहने से।
  • शारीरिक मेहनत न करने से।
  • शारीरिक और मानसिक बदलाव की वजह से।
  • शादी के बाद हार्मोनल परिवर्तन की वजह से।
  • थाइरोइड बीमारी की वजह से।
  • व्यायाम के लिए समय नहीं।
  • बार बार खाते रहने से।
  • जल्दी न पचने वाला फ़ास्ट फ़ूड खाने से ।
  • गर्भावस्था के बाद।
  • प्राथमिकताएं बदल जाना।
  • बाहर का खाना खाना।
  • खुद के लिए समय न निकालना।
  • जिन लोगो का व्यवसाय बैठे रहने का है।

कैसे रोकें अपना बढ़ता वजन :

जल्दी उठकर व्यायाम करे –  सुबह जल्दी उठकर व्यायाम  व् सैर अति आवश्यक है।  इससे शरीर को   ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मिलती है और कॉर्बन डाई ऑक्साइड बाहर  निकल जाती है। जिससे शरीर की सभी प्रणाली सुचारू रूप से कार्य करती है और शरीर मोटापा का शिकार नही होता।

नींद पूरी ले `पर्याप्त मात्रा में नींद न लेने पर हार्मोन जारी  होते है जिससे शरीर में वसा की  मात्रा बढ़ती है । रात में 6-7 घंटे सोने वाले लोगो को  वजन बढ़ने  की शिकायत कम रहती है ।

गर्भावस्था के बाद व्यायाम आवश्यक– गर्भावस्था के बाद महिलाओं का पेट और कमर का साइज काफी बढ़ जाता है। जिसके लिए व्यायाम काफी आवश्यक है वरना मोटापा और बढ़ता जायेगा।  इसलिए  साथ खुद पर भी ध्यान  देना अति आवश्यक है।

अधिक वसा युक्त और तले हुए पदार्थो से परहेज– अधिक तेल और वसा युक्त खाद्य पदार्थो का सेवन करने से अतिरिक्त वसा हमारे शरीर में जमा हो जाती है जो बाद में चर्बी का रूप ले लेती है।  इसलिए इन पदार्थो के सेवन से बचे।

बाहर का जल्दी न पचने वाला फ़ास्ट फ़ूड से परहेज करे– बाहर का मैदा से बना जल्दी न पचने वाला खाना खाने से भी मोटापा बढ़ता जा रहा है। इसलिए इन चीजो से जितना हो सके परहेज करे।

पियें ग्रीन टी– रात  को सोने से पहले ग्रीन टी  पिए, क्योकि इसमें मेटबोलिक्स होते है जो सारी रात चर्बी घटाने का काम करते रहते है , जिससे आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा।

पत्ता गोभी खाए – पत्ता गोभी में चर्बी घटाने वाले गुण होते है और इससे शरीर का चयापचय शक्ति शाली होता है। इसलिए इसका सेवन जरूर करे। यह मोटापा घटाने में कारगर है। 


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