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जानिए 10 बातें जिससे आप रहेंगे हमेशा स्वस्थ

अगर आप अपनी दिनचर्या में ये 10 चीजें शामिल कर लें तो दुनिया का कोई भी रोग आपको छू भी नहीं पायेगा. हृदय रोग, शुगर – मधुमेह, जोड़ों के दर्द, कैंसर, किडनी, लीवर आदि के रोग आपसे कोसों दूर रहेंगे. ऐसी ग़ज़ब हैं ये. आइये जानते हैं इनके बारे में|

1 छाछ

तेज और ओज बढ़ने के लिए छाछ का निरंतर सेवन बहुत हितकर हैं। सुबह और दोपहर के भोजन में नित्य छाछ का सेवन करे। भोजन में पानी के स्थान पर छाछ का उपयोग बहुत हितकर हैं।

2 हरड़

हर रोज़ एक छोटी हरड़ भोजन के बाद दाँतो तले रखे और इसका रस धीरे धीरे पेट में जाने दे। जब काफी देर बाद ये हरड़ बिलकुल नरम पड़ जाए तो चबा चबा कर निगल ले। इस से आपके बाल कभी सफ़ेद नहीं होंगे, दांत 100 वर्ष तक निरोगी रहेंगे और पेट के रोग नहीं होंगे, कहते हैं एक सभी रोग पेट से ही जन्म लेते हैं तो पेट पूर्ण स्वस्थ रहेगा।

3 दालचीनी और शहद

सर्दियों में चुटकी भर दालचीनी की फंकी चाहे अकेले ही चाहे शहद के साथ दिन में दो बार लेने से अनेक रोगों से बचाव होता है।

4 मेथी

मेथीदाना पीसकर रख ले। एक चम्मच एक गिलास पानी में उबाल कर नित्य पिए। मीठा, नमक कुछ भी नहीं डाले इस पानी में। इस से आंव नहीं बनेगी, शुगर कंट्रोल रहेगी जोड़ो के दर्द नहीं होंगे और पेट ठीक रहेगा।

5 आंवला

किसी भी रूप में थोड़ा सा आंवला हर रोज़ खाते रहे, जीवन भर उच्च रक्तचाप और हार्ट फेल नहीं होगा, इसके साथ चेहरा तेजोमय बाल स्वस्थ और सौ बरस तक भी जवान महसूस करेंगे।

6 नाक में तेल

रात को सोते समय नित्य सरसों का तेल नाक में लगाये। और 5 – 5 बूंदे बादाम रोगन की या सरसों के तेल की या गाय के देसी घी की हर रोज़ डालें.

7 कानो में तेल

सर्दियों में हल्का गर्म और गर्मियों में ठंडा सरसों का तेल तीन बूँद दोनों कान में कभी कभी डालते रहे। इस से कान स्वस्थ रहेंगे।

8 सौंठ

सामान्य बुखार, फ्लू, जुकाम और कफ से बचने के लिए पीसी हुयी आधा चम्मच सौंठ और ज़रा सा गुड एक गिलास पानी में इतना उबाले के आधा पानी रह जाए। रात क सोने से पहले यह पिए। बदलते मौसम, सर्दी व् वर्षा के आरम्भ में यह पीना रोगो से बचाता हैं। सौंठ नहीं हो तो अदरक का इस्तेमाल कीजिये।

9 लहसुन की कली

दो कली लहसुन रात को भोजन के साथ लेने से यूरिक एसिड, हृदय रोग, जोड़ों के दर्द, कैंसर आदि भयंकर रोग दूर रहते हैं।

10 तुलसी और काली मिर्च

प्रात: दस तुलसी के पत्ते और पांच काली मिर्च नित्य चबाये। सर्दी, बुखार, श्वांस रोग, अस्थमा नहीं होगा। नाक स्वस्थ रहेगी।


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जानिए क्या है स्तन कैंसर का आयुर्वैदिक उपचार

breast-cancer1पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को कई तरह की बीमारियों से जुझना पड़ता है। उन्हीं में से एक है स्तन कैंसर। स्तन में वैसे तो कई तरह की बीमारियाँ पाई जाती है, लेकिन जो स्तन कैंसर होता है वो बहुत ही जानलेवा होता है। इस प्रकार की बीमारी से बहुत ही कम स्त्रियों के बचने की उम्मीद होती है। इसके अलावा उन्हें कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि…

स्तनों में सुजन, अतिस्थूल स्तन, थनैला, अविकसित स्तन आदि समस्याएं। स्तनों में जब भी किसी प्रकार की समस्या हो तो तुरंत उपचार करवाना चाहिए। लेकिन कुछ ऐसी समस्या होने पर औरतें डॉक्टर के पास जाने से हिचकिचाती हैं। ऐसे में उन्हें चाहिए कि वो अपने घर में रहकर आयुर्वैदिक उपचार करें। वैसे हमारा मानना है कि उन्हें डॉक्टर से भी सलाह लेनी चाहिए।

स्तन कैंसर के कारण

स्तन कैंसर महिला के शरीर की कोशिकाओं का एक रोग होता है। हमारे शरीर का प्रत्येक अंग कोशिकाओं से बना होता है। जैसे-जैसे हमारे शरीर को जरूरत होती है ये कोशिकाएं विभिन्न भागों में बंट जाती है, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि शरीर के अंगों में ये असामान्य तरीके से बढ़ती रहती हैं। लगातार बढ़ने से ये कोशिकाएं एक साथ जमा हो जाती हैं, जो बाद में एक गांठ बनकर ट्यूमर का रूप धारण कर लेती है। स्तन कैंसर के कारण कुछ इस प्रकार से है…

1. किसी महिला स्तन संबंधी कोई रोग पहले हुआ हो, तो उसे स्तन कैंसर भी हो सकता है।
2. महिला के शरीर की कोशिकाएं जब असामान्य रूप से बढ़ती हैं, तो यह रोग हो सकता है।
3. इस रोग के कारण महिला का मासिक धर्म उम्र से पहले या अधिक देरी से हो सकता है।
4. इस रोग के कारण महिला अधिक देरी से माँ बनती है।

स्तन कैंसर के लक्षण

1. स्तन कैंसर की शुरुआत में महिला के स्तनों मे छोटी-छोटी गांठे बनती है, लेकिन छुने से इन गांठो का पता नहीं चलता।
2. महिला के स्तनों में जो गांठे होती है, उनमें लगातार दर्द रहता है।
3. महिलाओं के स्तन अचानक से बढ़ने लगते हैं।
4. स्तन कैंसर की शुरुआत में महिलाओं के स्तनों के साइड में सुजन आ जाती है।
5. स्तन कैंसर होने पर स्तन के निप्पल लाल तो होते ही हैं, कई बार इनमें खून भी निकलने लगता है।
6. स्तनों में छोटी छोटी फुंसी भी निकल सकती है।
7. स्तन की त्वचा में झुर्रियां का आना स्तन कैंसर के लक्षण हो सकते हैं।

स्तनों  कैंसर के आयुर्वैदिक उपचार

1. अगर किसी महिला में स्तन कैंसर के लक्षण नजर आते हैं, तो इससे बचने के लिए हर्बल ग्रीन टी का प्रयोग कर सकते हैं, इसके लिए हर्बल टी को एक गिलास पानी में डालकर उबालें और तब तक उबालें जब तक पानी आधा न रह जाए फिर इस पानी का सेवन करें। रोज ग्रीन टी का सेवन करने से स्तनों की बीमारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
2. स्तनों के कैंसर से बचने के लिए अंगूर और अनार के जूस का नियमित रूप से सेवन करें। इससे महिलाओं को स्तन के कैंसर की सम्भावना कम होती है।
3. इस बीमारी से छुटकारा पाने के लिए सोंठ, नमक, मूली, सरसों के दाने और सहिजन के बीज लें। बराबर मात्रा में इन्हें पिस लें, बाद में इस मिश्रण को अपने स्तनों पर लगायें। फिर नमक की एक पोटली तैयार करें , फिर 20 मिनट तक उस पोटली से स्तनों को सकाई करें। कुछ दिनों तक ऐसा करने से आप को स्तन कैंसर से मुक्ति मिल जायेगी।
4. अगर आप चाहते हैं कि यह रोग न हो तो रोजाना लहसुन का सेवन करें।
5. अगर इस कैंसर की शुरुआत है तो यह अधिक न बढ़े इसके लिए महिलाएं पोई के पत्ते को पीसकर एक पिंड तैयार करें और अपने स्तनों पर उस लेप को लगा लें। इसको अपने स्तनों पर बांध भी सकती है। ऐसा करके कैंसर को बढ़ने से रोका जा सकता है।


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जानिए – आखिर क्यों होते हैं हम बीमार ?

आयुर्वेद की हमारे रोजमर्रा के जीवन, खान-पान तथा रहन-सहन पर आज भी गहरी छाप दिखाई देती है । आयुर्वेद की अद्भूत खोज है – ‘त्रिदोष सिद्धान्त’ जो कि एक पूर्ण वैज्ञानिक सिद्धान्त है और जिसका सहारा लिए बिना कोई भी चिकित्सा पूर्ण नहीं हो सकती । इसके द्वारा रोग का शीघ्र निदान और उपचार के अलावा रोगी की प्रकृति को समझने में भी सहायता मिलती है ।prakiti

त्रिदोष अर्थात् वात, पित्त, कफ की दो अवस्थाएं होती है –
1. समावस्था (न कम, न अधिक, न प्रकुपित, यानि संतुलित, स्वाभाविक, प्राकृत)
2. विषमावस्था (हीन, अति, प्रकुपित, यानि दुषित, बिगड़ी हुर्इ, असंतुलित, विकृत) ।

वास्तव में वात, पित्त, कफ, (समावस्था) में दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है तभी ये दोष कहलाती है । इस प्रकार रोगों का कारण वात, पित्त, कफ का असंतुलन या दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है और उसे स्वस्थ रखती है । जब यही धातुएं दूषित या विषम होकर रोग पैदा करती है, तभी ये दोष कहलाती है ।

अत: रोग हो जाने पर अस्वस्थ शरीर को पुन: स्वस्थ बनाने के लिए त्रिदोष का संतुलन अथवा समावस्था में लाना पड़ता है ।

स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करने, अनुचित और विरूद्ध आहार-विहार करने, ऋतुचर्या-दिनचर्या, व्यायाम आदि पर ध्यान न देने तथा विभिन्न प्रकार के भोग-विलास और आधुनिक सुख-सुविधाओं में अपने मन और इन्द्रियों को आसक्त कर देने के परिणाम स्वरूप ये ही वात, पित्त, कफ, प्रकुपित होकर जब विषम अवस्था में आ जाते हैं जब अस्वस्थता की स्थिति रहती है।

अत: अच्छा तो यही है कि रोग हो ही नही । इलाज से बचाव सदा ही उत्तम है ।

रोगों पर आरम्भ से ध्यान न देने से ये प्राय: कष्टसाध्य या असाध्य हो जाते हैं । अत: साधारण व्यक्ति के लिए समझदारी इसी में है कि यह यथासंभव रोग से बचने का प्रयत्न करे, न कि रोग होने के बाद डॉक्टर के पास इलाज के लिए भागें ।

वात प्रकोप के लक्षण:

1 शरीर का रूखा-सूखा होना ।
2 धातुओं का क्षय होना या तन्तुओं के अपर्याप्त पोषण के कारण
3 शरीर का सूखा या दुर्बला होते जाना।
4 अंगों की शिथिलता, सुत्रता और शीलता।
5 अंगों में कठोरता और उनका जकड़ जाना।

पित्त प्रकोप के लक्षण:

1 शरीर में दाह (जलन)/आंखों में लालिमा और जलन। हृदय, पेट, अन्नतालिका, गले में जलन प्रतीत होना।
2 गर्मी का ज्यादा अनुभव होना।
3 त्वचा का गर्म रहना, त्वचा पर फोड़े-फुंसियों का निकालना और पकना।
4 त्वचा, मूल, मूत्र, नेत्र, आदि का पीला होना।
5 कंठ सूखना, कंठ में जलन, प्यास का अधिक लगना।
6 मुंह का स्वाद कड़वा होना, कभी-कभी खट्टा होना।
7 अम्लता का बढ़ना, खट्टी डकारें, गले में खट्टा-चरपरा पानी आना।
8 उल्टी जैसा अनुभव होना या जी मिचलाना, उल्टी के साथ सिरदर्द होना।
9 पतले दस्त होना।

कफ प्रकोप के लक्षण:

1 शरीर भारी, शीतल, चिकना और सफेद होना।
2 अंगों में शिथिलता व थकावट का अनुभव होना। आलस्य का बना रहना ।
3 ठंड अधिक लगना ।
4 त्वचा चिकनी व पानी में भिगी हुई सी रहना।
5 मुंह का स्वाद मीठा और चिकना होना। मुंह से लार गिरना।
6 भूख का कम लगना। अरुचि व मंदाग्नि।
7 मल, मूत्र, नेत्र ओर सारे शरीर का सफेद पड़ जाना। मल में चिकनापन और आंव का आना।


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कैसी हो आपकी दिनचर्या – बताती है आपके शरीर की जैविक घडी

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ghadiहमारे ऋषियों, आयुर्वेदाचार्य ने जो जल्दी सोने-जागने एवं आहार-विहार की बातें बतायी है, उन पर अध्ययन व खोज करके आधुनिक वैज्ञानिक और चिकित्सक अपनी भाषा में उसका पुरजोर समर्थन कर रहे है ।

मनुष्य के शरीर में करीब ६० हजार अरब से एक लाख अरब जितने कोश होते है और हर सेकंड एक अरब रासायनिक क्रियाएँ होती है । उनका नियंत्रण सुनियोजित ढंग से किया जाता है और उचित समय पर हर कार्य का सम्पादन किया जाता है । सचेतन मन के द्वारा शरीर के सभी संस्थानों को नियत समय पर क्रियाशील करने के आदेश मस्तिष्क की पीनियल ग्रन्थि के द्वारा स्रावों (हार्मोन्स) के माध्यम से दिये जाते है । उनमे मेलाटोनिन और सेरोटोनिन मुख्य है, जिनका स्राव दिन-रात के कालचक्र के आधार पर होता है । यदि किसी वजह से इस प्राकृतिक शारीरिक कालचक्र या जैविक घड़ी में विक्षेप होता है तो उसके कारण भयंकर रोग होते है, जिनका इलाज सिर्फ औषोधियों से नहीं हो सकता । और यदि अपनी दिनचर्या, खान-पान तथा नींद को इस कालचक्र के अनुरूप नियमित किया जाय तो इन रोगों से रक्षा होती है और उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है । इस चक्र के विक्षेप से सिरदर्द, सर्दी से लेकर कैंसर जैसे रोग भी हो सकते है । अवसाद, अनिद्रा जैसे मानसिक रोग तथा मूत्र-संस्थान के रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह (diabetes), मोटापा, ह्रदयरोग जैसे शारीरिक रोग भी हो सकते है । उचित भोजनकाल में पर्याप्त भोजन करनेवालों की अपेक्षा अनुचित समय कम भोजन करनेवाले अधिक मोटे होते जाते है और इनमे मधुमेह की सम्भावना बढ़ जाती है । अत: हम क्या खाते है, कैसे सोते है यह जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है हम कब खाते या सोते है ।

अंगों की सक्रियता अनुसार दिनचर्या 

प्रात : ३ से ५ :

यह ब्रम्हमुहूर्त का समय है । इस समय फेफड़े सर्वाधिक क्रियाशील रहते है । ब्रम्हमुहूर्त में थोडा-सा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना चाहिए ।  इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है । उन्हें शुद्ध वायु (ऑक्सिजन) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ् व स्फूर्तिमान होता है । ब्रम्हमुहूर्त में उठनेवाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है और सोते रहनेवालों का जीवन निस्तेज हो जाता है ।

प्रात: ५ से ७ :

इस समय बड़ी आँत क्रियाशील होती है । जो व्यक्ति इस समय भी सोते रहते है या मल-विसर्जन नहीं करते, उनकी आँते मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा  देती है । इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते है । अत: प्रात: जागरण से लेकर सुभ ७ बजे के बीच मलत्याग कर लेना चाहिए ।

सुबह ७ से ९ व ९ से ११ :

७ से ९ आमाशय की सक्रियता का काल है । इसके बाद ९ से ११ तक अग्न्याशय व प्लीहा सक्रिय रहते है । इस समय पाचक रस अधिक बनाते है । अत: करीब ९ से ११ बजे का समय भोजन के लिए उपयुक्त है । भोजन से पहले ‘रं- रं- रं…  ‘ बीजमंत्र का जप करने से जठराग्नि और भी प्रदीप्त होती है । भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी (अनुकूलता अनुसार) घूँट-घूँट पिये ।

इस समय अल्पकालिक स्मृति सर्वोच्च स्थिति में होती है तथा एकाग्रता व विचारशक्ति उत्तम होती है । अत: यह तीव्र क्रियाशीलता का समय है । इसमें दिन के महत्त्वपूर्ण कार्यो को प्रधानता है ।

दोपहर ११ से १ :

इस समय उर्जा-प्रवाह ह्रदय में विशेष होता है । करुणा, दया, प्रेम आदि ह्रदय की संवेदनाओ को विकसित एवं पोषित करने के लिए दोपहर १२ बजे के आसपास मध्यान्ह-संध्या करने का विधान हमारी संस्कृति में है । हमारी संस्कृति कितनी दीर्घ दृष्टिवाली हैं ।

दोपहर १ से ३ :

इस समय छोटी आँत विशेष सक्रिय रहती है । इसका कार्य आहार से मिले पोषक तत्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर ढकेलना हैं । लगभग इस समय अर्थात भोजन के करीब २ घंटे बाद प्यास-अनुरूप पानी पीना चाहिए, जिससे त्याज्य पदार्थो को आगे बड़ी आँत को सहायता मिल सके । इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार-रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।

दोपहर ३ से ५ :

यह मूत्राशय की विशेष सक्रियता का काल है | मूत्र का संग्रहण करना यह मूत्राशय का कार्य है | २ – ४ घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्रत्याग की प्रवृत्ति होगी |

शाम ५ से ७ :

इस समय जीवनीशक्ति गुर्दों की एयर विशेष प्रवाहित होने लगती है | सुबह लिए गये भोजन की पाचनक्रिया पूर्ण हो जाती है | अत: इस काल में सायं भुक्त्वा लघु हितं … (अष्टांगसंग्रह)अनुसार हलका भोजन कर लेना चाहिए | शाम को सूर्यास्त से ४० मिनट पहले से १० मिनट बाद तक (संध्याकाल में) भोजन न करें | न संध्ययो: भुत्र्जीत | (सुश्रुत संहिता) संध्याकालों में भोजन नहीं करना चाहिए |

न अति सायं अन्नं अश्नीयात | (अष्टांगसंग्रह) सायंकाल (रात्रिकाल) में बहुत विलम्ब करके भोजन वर्जित है | देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है |

सुबह भोजन के दो घंटे पहले तथा शाम को भोजन के तीन घंटे दूध पी सकते है |  

रात्रि ७ से ९ :

इस समय मस्तिष्क विशेष सक्रिय रहता है | अत: प्रात:काल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है | आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टि हुई है | शाम को दीप जलाकर दीपज्योति: परं ब्रम्हा….. आणि स्त्रोत्र्पाथ व शयन से पूर्व स्वाध्याय अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग है |

रात्रि ९ से ११ :

इस समय जीवनीशक्ति रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु (spinal cord) में विशेष केंदित होती है | इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरुरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है | इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है और जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है |

रात्रि ९ बजने के बाद पाचन संस्थान के अवयव विश्रांति प्राप्त करते है, अत: यदि इस समय भोजन किया जाय तो वाह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं है और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते है जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने रोग उत्पन्न करते है | इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है |

रात्रि ११ से १ :

इस समय जीवनीशक्ति पित्ताशय में सक्रिय होती है | पित्त का संग्रहण पित्ताशय का मुख्य कार्य है | इस समय का जागरण पित्त को प्रकुपित कर अनिद्रा, सिरदर्द आदि पित्त-विकार तथा नेत्र्रोगों को उत्पन्न करता है |

रात्रि को १२ बजने के बाद दिन में किये गये भोजन द्वारा शरीर के क्षतिग्रस्त कोशी के बदले में नये कोशों का निर्माण होता है | इस समय जागते रहोगे तो बुढ़ापा जल्दी आयेगा |

रात्रि १ से ३ :

इस समय जीवनीशक्ति यकृत (liver) में कार्यरत होती है | अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है | इस समय शरीर को गहरी नींद की जरूरत होती है | इसकी पूर्ति न होने पर पाचनतंत्र बिगड़ता है |

इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएँ मंद होती है | अत: इस समय सडक दुर्घटनायें अधिक होती है |

निम्न बातों का भी विशेष ध्यान रखें :

१) ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है | अत: प्रात: एवं शाम के भोज की मात्रा ऐसी रखें, जिससे ऊपर बताये समय में खुलकर भूख लगे |

२) सुबह व शाम के भोजन के बीच बार-बार कुछ खाते रहने से मोटापा, मधुमेह, ह्रदयरोग जैसी बिमारियों और मानसिक तनाव व अवसाद (mental stress & depression) आदि का खतरा बढ़ता है |

३) जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें | इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है | कुर्सी पर बैठकर भोजन करने से पाचनशक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहीवत हो जाती है | इसलिए ‘बुफे डिनर’ से बचना चाहिए |

४) भोजन से पूर्व प्रार्थना करें, मंत्र बोले या गीता के पंद्रहवे अध्याय का पाठ करें | इससे भोजन भगवतप्रसाद बन जाता है | मंत्र :

हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापति: |

हरि: सर्वशरीरस्थो भुंक्ते भोजयते हरि: ||

५) भोजन के तुरंत बाद पानी न पिये, अन्यथा जठराग्नि मंद पद जाती है और पाचन थी से नहीं हो पाता | अत: डेढ़-दो घंटे बाद ही पानी पिये | फ्रिज का ठंडा पानी कभी न पिये |

६) पानी हमेशा बैठकर तथा घूँट-घूँट करके मुँह में घुमा-घुमा के पिये | इससे अधिक मात्रा में लार पेट में जाती है, जो पेट के अम्ल के साथ संतुलन बनाकर दर्द, चक्कर आना, सुबह का सिरदर्द आदि तकलीफें दूर करती है |

७) भोजन के बाद १० मिनट वज्रासन में बैठे | इससे भोजन जल्दी पचता है |

८) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोये; अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती है |

९) शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्री को बत्ती बंद करके सोये | इस संदर्भ में हुये शोध चौकानेवाले है | नॉर्थ कैरोलिना युनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. अजीज के अनुसार देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर भयंकर स्वास्थ्य-सबंधी हानियाँ होती है | अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी सही ढंग से चलती है |

आजकल पाये जानेवाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त-व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है | हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगो की सक्रियता का हमे अनायास ही लाभ मिलेगा | इस प्रकार थोड़ी-सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी |


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